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आगम विषय कोश-२
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ब्रह्मचर्य
कामवासना का उदय होने पर निम्न उपायों से कामासक्ति चावल देती है और किसी के आय-व्यय का लेखा-जोखा देखती की चिकित्सा की जा सकती है
है। इन कार्यों में उसका दिन बीत गया। वह अत्यंत श्रांत होकर ० निर्विकृतिक, अवमौदर्य, उपवास आदि तप। इनसे कामेच्छा का जब रात को सोने लगी तो धायमाता ने पूछा-तेरे लिए पुरुष उपशमन न हो तो सेवाकार्य में नियोजन।
लाऊं? वह बोली-पुरुष से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। मुझे तो ० खड़े-खड़े कायोत्सर्ग का प्रयोग।
नींद लेने दो। ० देशाटन करने वालों के साथ सहयोगी के रूप में नियुक्ति तथा इसी प्रकार मंडली में उपविष्ट गीतार्थ सूत्र-अर्थ की वाचना बहुश्रुत हो तो सूत्र-अर्थमंडली का दायित्व सौंपना, जिससे वह देने में इतनी सघनता से व्याप्त हो जाता है कि उसके चित्त में सतत कार्य में व्याप्त रहे।
काम का संकल्प ही नहीं जागता। ____ नोदक आह-जति तावागीयत्थस्स निव्वीयादि तव- १६. एकांत स्थान : सागारिकशय्या-निषेध विसेसा उवसमो ण भवति तो गीयत्थस्स कहं सीयच्छायादि- जे भिक्खू सागारियं सेज्जं अणुपविसति अणुपविसंतं वा ठियस्स उवसमो भविस्सति ? 'कप्पट्ठियाहरणं'ति
सातिजति। "आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं॥ __एगस्स कुडुबिगस्स धूया णिक्कम्मवावारा सुहास
(नि १६/१, ५१) णत्था अच्छति। तस्स य अब्भंगुव्वट्टणण्हाणविलेवणादि
सन्नासुत्तं सागरियं ति जहा मेहुणुब्भवो होइ। परायणाए मोहुब्भवो। अम्मधाति भणति। तीए अम्मधातीए माउए से कहियं। तीए विपिउणो। पिउणा वाहरित्ता
जत्थित्थी पुरिसा वा, वसंति सुत्तं तु सट्ठाणे॥ भणिया-पुत्तिए! एताओ दासीओ सव्वधणादि अवर
(निभा ५०९६) हंति, तुमं कोठायारं पडियरसु, तह त्ति पडिवन्नं, सा जो भिक्षु सागारिका वसति में रहता है अथवा रहने का जाव अण्णस्स भत्तयं देति, अण्णस्स वित्तिं, अण्णस्स अनुमोदन करता है, वह चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। तंदुला, अण्णस्स आयं देक्खती, अण्णस्स वयं, एव- 'सागारिक' (अगारी सहित)-यह सामयिकी संज्ञा है। मादिकिरियासु वावडाए दिवसो गतो।सा अतीव खिण्णा जिस वसति में रहने से मैथुन संज्ञा का उद्भव होता है अथवा जहां रयणीए णिवण्णा अम्मधातीते भणिता-आणेमि ते स्त्री-पुरुष रहते हैं, वह सागारिका है। निग्रंथ स्त्रीसागारिका पुरिसं? सा भणेति-ण मे पुरिसेण कजं, णि लहामि। वसति में और निग्रंथी पुरुषसागारिका वसति में नहीं रह सकती। एवं गीयत्थस्स वि सुत्तपोरिसिं देंतस्स अतीव सुत्तत्थेसु णिच्चं पि दव्वकरणं, अवहितहिययस्स गीयसहेसु। वावडस्स कामसंकप्पो ण जायइ। (निभा ५७४ की चू) पडिलेहण सज्झाए, आवासग भुंज वेरत्ती॥ ____ कन्या दृष्टांत-शिष्य ने पूछा-अगीतार्थ का निर्विकृति ।
ते सीदिउमारद्धा, संजमजोगेहि वसहिदोसेणं। आदि तप विशेष से भी मोहशमन नहीं होता है तो गीतार्थ का
गलति जतुं तप्पंतं, एव चरित्तं मुणेयव्वं ॥ शीतछाया आदि में बैठने मात्र से मोह शांत कैसे होगा?
(निभा ५१०९, ५११०) ____ आचार्य ने कहा-एक कुटुम्बी की कन्या सदा निठल्ली सागारिक वसति में गीत, वाद्य आदि के शब्द सुनाई देते रहते सुखासन में बैठी रहती थी। अभ्यंग-उबटन-स्नान-विलेपन में हैं, मुनि का चित्त सदा उन्हीं में लगा रहता है। इससे उसकी लगी रहने के कारण उसमें कामवासना जाग गई। वह धाय से प्रतिलेखना, स्वाध्याय, आवश्यक आदि समस्त संयमयोग की क्रियाएं बोली-मेरे लिए एक पुरुष लाओ। बात माता-पिता तक पहुंची। द्रव्य क्रियाएं होती हैं (संयमयोगों में उसका मन स्थिर नहीं रहता)। पिता ने बुलाकर कहा-बेटी ! ये दासियां धन-धान्य को चुरा रही जैसे अग्नि के ताप से लाख का गोला पिघल जाता है, वैसे हैं, अतः कोष्ठागार को अब तुम संभालो। पुत्री ने स्वीकृति दी। ही सदोष वसति में रहने से संयम-योगों में उसका मन विषण्ण अब वह किसी को भत्ता देती है, किसी को वृत्ति, किसी को रहता है, इससे चारित्र की हानि होती है।
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