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आगम विषय कोश-२
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ब्रह्मचर्य
निब्भयया य सिणेहो, वीसत्थत्तं परोप्पर निरोहो। घटजलतुल्य ज्ञान आदि की प्रवृत्तियां उसे बुझा नहीं सकतीं। दाणकरणं पि जुज्जइ, लग्गइ तत्तं च तत्तं च॥ १३. वेदोदय का हेतु : कर्म या सहायक सामग्री ?
(बृभा २१६९, २१७२) ."लब्भीय कूलवालो, गुणमगुणं किं व सगडाली। अश्व, गौ आदि पशु बन्धन से मुक्त होने पर विजातीय वर्ग कस्सइ विवित्तवासे, विराहणा दुन्नए अभेदो वा। को छोड़कर सजातीय वर्ग का ही अनुसरण करते हैं। अत्यन्त पार्श्व में
जह सगडालि मणो वा, तह बिइओ किं न रंभिंसु॥ गौ आदि के होने पर भी अश्व अत्यन्त दूरस्थ सजातीय वडवा की होज्ज न वा वि पभुत्तं, दोसाययणेसु वट्टमाणस्स। ओर ही दौड़ता है।
चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायं पि वज्जेइ॥ संयत और संयती एक-दूसरे से निर्भय होते हैं। स्वपक्ष के न चात्रारण्यं जनाकुलं वा प्रमाणम्, यतः कूलवालकोकारण दोनों में स्नेहभाव होता है। गोपनीय विषय में दोनों एक- ऽटव्यामपि वसन् कं गुणं लब्धवान् ? 'शाकटालिः' स्थूलदूसरे से विश्वस्त होते हैं। दोनों ही वस्ति का निग्रह करने वाले भद्रस्वामी स जनमध्ये गणिकाया गृहेऽपि तिष्ठन् कमगुणं होते हैं, वस्त्र-पात्र आदि का परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। जैसे लब्धवान् ? न कमपीति भावः । दुर्नये' स्त्र्यादिसंसक्तप्रतिश्रयतपाये हए लोहे के दो टुकड़े आपस में संबद्ध हो जाते हैं, वैसे ही वासेऽपि वेदमोहनीयक्षयोपशमप्रबलत्वेन 'अभेदः' न ब्रह्मचर्यनिरोध से संतप्त श्रमण-श्रमणी एकान्त को पाकर जड जाते हैं। विलोपो भवति""यद्येवं तर्हि कर्मोदय-क्षय-क्षयोपशमादिरेव १२. मुनि के भी वेदोदय
प्रमाणं न स्त्रीसंसर्गादि, नैवम् कर्मणामुदय-क्षय-क्षयोपशमा
दयोऽपि प्रायस्तथाविधद्रव्यक्षेत्रादिसहकारिकारणसाचिव्यादेव लुक्खमरसुण्हमनिकामभोइणं देहभूसविरयाणं।
तथा तथा समुपजायन्ते नान्यथा। यथा वा 'शाकटालिः' सज्झाय-पेहमादिसु, वावारेसुं कओ मोहो॥
स्थूलभद्रस्वामी स्वीकयं मनः स्त्रीसंसर्गेऽपि निरुद्धवान् तथा पहरण-जाणसमग्गो, सावरणो वि हु छलिज्जई जोहो। वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्थो वि किं गाहो॥
_ 'द्वितीयः' सिंहगुफावासी किं न निरुद्धवान् ?
॥ उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवितं न उज्जलइ।
(बृभा २१६४-२१६६ वृ) अइइद्धो वि न सक्कइ, विनिव्ववेउं कुडजलेणं॥ कोई मुनि एकान्त स्थान में निवास करता है, किंतु प्रबल
(बृभा २१५४, २१६०, २१६१) वेद का उदय होने से वह ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हो जाता है। इसमें मुनि रूक्ष, अरस, ठण्डा और परिमित आहार करते हैं, देह- अरण्य या जनाकुल स्थान प्रमाण नहीं है, क्योंकि कूलवालक ने विभूषा से विरत होते हैं, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षणा आदि कार्यों में जंगल में रहते हुए भी कौन सा गुण प्राप्त किया? स्थूलभद्रस्वामी व्यापृत रहते हैं, फिर उनके मोह का उदय कैसे संभव है?
को जनमध्य गणिका के घर में रहते हुए भी कौन सी हानि हुई? गुरु ने कहा-जो योद्धा खड्ग आदि शस्त्रों, हस्ती. रथ आदि कुछ भी हानि नहीं हुई। कोई मुनि स्त्रियों से संसक्त वसति में यान-वाहनों तथा अन्य युद्ध सामग्री से युक्त है, कवच से सन्नद्ध
रहता है, किन्तु वेद मोहनीय के क्षयोपशम की प्रबलता के कारण है और युद्धकला का पारगामी है, वह भी युद्ध के मोर्चे पर पराक्रम
ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट नहीं होता। . से लड़ता हुआ अन्य योद्धा के द्वारा छल से मारा जाता है।
__'ब्रह्मचर्य के लोप-अलोप में कर्मों का उदय, क्षय और गारुडिक के हाथ में औषध होने पर भी क्या वह दष्ट सर्प क्षयोपशम ही प्रमुख कारण है, स्त्री आदि का संसर्ग नहीं'-यह के द्वारा नहीं छला जाता? छला जाता है। जलकुम्भ हाथ में होने
कथन उपयुक्त नहीं है क्योंकि कर्मों का उदय, क्षय, क्षयोपशम भी पर भी क्या प्रज्वलित होता हुआ घर नहीं जल जाता? अत्यन्त
प्रायः तथाविध द्रव्य, क्षेत्र आदि सहकारी कारणों के सहयोग से ही प्रदीप्त आग को घटमात्र जल से नहीं बझाया जा सकता। उसी होता है, अन्यथा नहीं। प्रकार मोहोदयरूप अग्नि से प्रज्वलित चारित्रगृह जल जाता है, अथवा जैसे स्थलभद्र स्वामी ने कोशावेश्या के प्रति अपने मन
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