________________
ब्रह्मचर्य
४३२
आगम विषय कोश-२
रसनेन्द्रिय द्वारा चखे जाने वाले रस का आस्वाद न ले, यह साध्वी अभिन्न तालप्रलंब नहीं ले सकती, साधु भिन्न और। शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः अभिन्न दोनों ले सकता है-इस द्विरूपता को देख शिष्य पूछता संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। है-क्या इस सूत्रार्थभेद की तरह साधु-साध्वियों के महाव्रतों में ____ स्पर्शनेन्द्रिय से स्पृष्ट होने वाली वस्तु का संस्पर्श न करे, भी भेद है ? गुरु कहते हैं-जैसे बौद्ध मत में भिक्षु के लिए ढाई सौ यह शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। शिक्षापद और भिक्षुणी के लिए पांच सौ शिक्षापद प्ररूपित हैं, वैसे अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। जिनशासन में नहीं हैं-साध्वीवर्ग के लिए न छह महाव्रत हैं और २१. ब्रह्म-रक्षा हेतु सूत्रों में वैविध्य
न स'धुवर्ग से दुगुने (दस )महाव्रत हैं। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ___नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए""""अपाइयाए ॥
दोनों वर्गों के सूत्र-निर्माण में भिन्नता है। वोसट्टकाइयाए होत्तए॥नो"बहिया गामस्स"आयावणाए २२. मैथुनधर्म का अपवाद नहीं आयावेत्तए॥
(क ५/१६-१९)
कामं सव्वपदेसु विउस्सग्गववातधम्मता जुत्ता।
मोत्तुं मेहुण-धम्म ण विणा सो रागदोसेहि॥ (निग्रंथ और निग्रंथी की आचारसंहिता के भिन्नता है-एक सूत्र निग्रंथ के लिए जिसका विधान करता है,
(निभा ३६४) दूसरा सूत्र निग्रंथी के लिए उसका निषेध करता है। यथा-) मूलगुण-उत्तरगुण संबंधी सब पदों में उत्सर्गधर्म और ० निग्रंथी अचेल और अपात्र नहीं रह सकती।
अपवादधर्म प्रतिपादित है, किन्तु ब्रह्मचर्य में कोई अपवाद नहीं है। • वह (अभिग्रहपूर्वक) व्युत्सृष्टकायिक-कायोत्सर्गप्रतिमा में मैथुनभाव में कल्पिका प्रतिसेवना का अभाव है, क्योंकि राग-द्वेष स्थित नहीं हो सकती।
के बिना मैथुन सेवन नहीं हो सकता। ० वह गांव के बाहर सूर्य का आतप नहीं ले सकती। २३. ब्रह्मचर्य की तेजस्विता : यक्ष दृष्टांत ___कप्पइ निग्गंथाणं पक्के तालपलंबे भिन्ने वा अभिन्ने वा ...."पव्वज्जाभिमुहंतर, गुज्झग उठभामिया वासो॥ पडिगाहित्तए॥नो कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने बितियणिसाए पुच्छा, एत्थ जती आसि तेण मि न आतो। पडिगाहित्तए॥
जतिवेसोऽयं चोरो, जो अज्ज तुहं वसति दारे । नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाइंचम्माइं अहिट्ठित्तए॥ कप्पइ अत्र कल्ये यतिरासीत् तेन कारणेन अहमत्र नायातः, निग्गंथाणं सलोमाई चम्माइं॥ (क १/३, ४ ; ३/३, ४) अपि च साधुसम्बन्धिना तेजसैव तमुल्लंध्य गन्तुं न शक्यते। • निग्रंथ भिन्न या अभिन्न पक्व तालप्रलंब ग्रहण कर सकता है। सा प्राह-किमेवं मृषा भाषसे ?..."यक्षः प्राह-एष चारित्रं • निग्रंथी अभिन्न पक्व तालप्रलंब ग्रहण नहीं कर सकती। प्रति विपरिणतश्चौर्यं कर्तुकामः, अतो यतिवेषेण चौरोऽयं ० निग्रंथियों के लिए सरोम चर्म का उपयोग विहित नहीं है। मन्तव्यः।
(बृभा ४१९३, ४१९४ वृ) ० निग्रंथ रोमसहित चर्म का उपयोग कर सकते हैं।
प्रव्रज्या ग्रहण करने की भावना से एक युवक गुरु के पास अभिण्णे महव्वय पुच्छा ...................
जा रहा था। उसने मार्ग में एक कशीला स्त्री के घर में रात्रि ण वि छम्महव्वता णेव दुगुणिता जह उ भिक्खुणीवग्गे।"
बितायी। वहां एक यक्ष निरंतर आता था, किन्तु उस रात वह नहीं ..."बंभवयरक्खणट्ठा, वीसुं वीसुं कता सुत्ता॥ आया। दूसरी रात्रि में स्त्री ने यक्ष से पूछा-तुम कल रात को क्यों
जहा तच्चण्णियाणं भिक्खुयाणं किल अड्डाइज्जा नहीं आये ? यक्ष ने कहा-कल यहां यति था, इसलिए मैं नहीं सिक्खापदं सता, भिक्खुणीणं पंचसिक्खापदं सता।
आया। साधु ब्रह्मचर्य के तेज से प्रदीप्त होते हैं, उस तेज का (निभा ४९०८, ४९०९, ४९
अतिक्रमण कर भीतर आना संभव नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org