________________
ब्रह्मचर्य
४३०
आगम विषय कोश-२
वडपादव उम्मूलण, तिक्खम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। प्रकार हैं-१. तत्रगत-जिस वसति में पहले से ही काष्ठकर्म, कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावती पडणं॥ पुस्तकर्म या चित्रकर्म में निर्वर्तित स्त्रीप्रतिमा अथवा दंतमय, उपलमय तह समणसुविहिताणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। या मृत्तिकामय स्त्रीरूप विद्यमान हैं, उनसे होने वाले दोष। कम्मोदयपच्चइया, विराधणा कासति हवेज्जा॥ २. आगंतुक-आगंतुक प्रतिमा से होने वाले दोष।
(बृभा ४९२९, ४९३०) ।
स्त्रीप्रतिमा दृष्टांत-पादलिप्त आचार्य ने राजा की बहिन के सदृश जैसे वटवृक्ष का मूल अनेक शाखाओं से प्रतिबद्ध होता
एक यन्त्र प्रतिमा बनाई। उस प्रतिमा में चंक्रमण और उन्मेष-निमेष
की क्षमता थी। उसके हाथ में तालवृन्त का पंखा था। वह आचार्य है किन्तु पहाड़ी नदी के जल का तीव्र वेग उसे उखाड़ देता है।
के सामने प्रस्थापित थी। राजा भी पादलिप्त आचार्य से स्नेह करता कोई व्यक्ति कीचड़ संकुल मार्ग का प्रयत्नपूर्वक वर्जन करता हुआ भी अवश होकर गिर जाता है। उसी प्रकार सर्वप्रयत्नों से
था। एक दिन द्वेषवश एक ब्राह्मण ने राजा से कहा-आपकी बहिन यतमान सुविहित श्रमणों के भी मोह का उदय हो जाता है।
आचार्य द्वारा अभिमंत्रित है। राजा को विश्वास नहीं हुआ। ब्राह्मण
राजा को अपने साथ ले गया और आचार्य के सम्मख प्रस्थापित किसी मुनि के वेदमोहनीयकर्म के उदय के कारण चारित्र की
यन्त्रमयी प्रतिमा दिखाई। राजा रुष्ट होकर वहां से लौट आया। विराधना हो जाती है।
तब आचार्य ने तत्काल उस प्रतिमा को विसर्जित कर दिया। राजा ० सदोष वसति : यंत्र प्रतिमा दृष्टांत
का संदेह दूर हो गया। यवन देश में ऐसी प्रतिमाएं प्रचुरता से दुविहो वसहीदोसो, वित्थरदोसो य रूवदोसो य।
निर्मित की जाती थीं। दुविहो य रूवदोसो, इत्थिगत णपुंसतो चेव॥ एक्केक्को सो दुविहो, सच्चित्तो खलु तहेव अच्चित्तो।
१७. कामकथा-वर्जन अच्चित्तो वि य दुविहो, तत्थगताऽऽगंतुओ चेव॥
सिंगाररसुत्तुइया, मोहमई फुफुका हसहसेति। कट्ठे पुत्ते चित्ते, दंतोवल मट्टियं व तत्थगतं।
जं सुणमाणस्स कहं, समणेण न सा कहेयव्वा॥ एमेव य आगंतुं, पालित्तय बेट्टिया जवणे॥
समणेण कहेयव्वा, तव-णियमकहा विरागसंजुत्ता।
जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेग-णिव्वेयं ॥ ___अत्र पादलिप्ताचार्यकृता 'बेट्टिक' त्ति राजकन्यका दृष्टान्तः । स चायम्-पालित्तायरिएहिं रन्नो भगिणीसरिसिया
__ (बृभा ४५८८, ४५८९) जंतपडिमा कया। चंकमणुम्मेस-निमेसमयी तालविंटहत्था
श्रमण को वैसी कथा नहीं कहनी चाहिये, जिसको सनकर आयरियाणं परतो चिड़। राया वि अईव पालित्तगस्स सिणेहं श्रोता का शृंगाररस उत्तेजित हो जाए और उस उत्तेजना से मोहमयी करेइ।धिज्जाइएहिं पउद्वेहिं रन्नो कहियं-भगिणी ते समण- करीषाग्नि प्रज्वलित हो उठे। एणं अभिओगिया। राया न पत्तियति पासित्तारुट्ठो पच्चो
श्रमण को वैराग्यमयी तप-नियम-कथा करनी चाहिए, सरिओ य। तओ सा आयरिएहिं चड त्ति विगरणी कया।"
जिसको सुनकर मनुष्य संवेग-निर्वेद को प्राप्त हो। एवमागन्तुका अपि स्त्रीप्रतिमा भवन्ति । 'जवणे' त्ति यवन- ० मां के साथ धर्मकथा का वर्जन विषये ईदृशानि स्त्रीरूपाणि प्राचुर्येण क्रियन्ते।
अवि मायरं पि सद्धिं , कधा तु एगागियस्स पडिसिद्धा। (बृभा ४९१३-४९१५ वृ) किं पुण अणारियादी, तरुणित्थीहिं सह गयस्स। वसति संबंधी दोषों के दो प्रकार हैं
(निभा २३४४) १. विस्तर दोष-विस्तीर्ण वसति (घंघशाला आदि)।
अकेला साधु अपनी एकाकी मां, बहिन आदि (अगम्य २. रूपदोष-इसके दो प्रकार हैं-स्त्रीरूपगत और नपुंसकरूपगत। स्त्रियों) के साथ भी धर्मकथा नहीं कर सकता, तब अन्य तरुणियों इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त। अचित्त के दो के साथ अनार्य (काम) कथा कैसे कर सकता है?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org