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आगम विषय कोश-२
४१५
प्रायश्चित्त
० अनेक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होते हैं।
एक राजा के तीन पुत्रों ने परस्पर मिलकर मंत्रणा की-हम ० अनेक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होते हैं।
पिता को मारकर राज्य को तीन भागों में बांट लेते हैं। यह बात अल्प मल वाला वस्त्र एक जलकुट से स्वच्छ हो जाता है। राजा को ज्ञात हो गई। यह युवराज है, प्रधान वस्तु (पुरुष) हैमलवृद्धि से जलकुटों की वृद्धि होती है। छह जलकुटों की वृद्धि ऐसा सोचकर राजा ने ज्येष्ठ पुत्र का भोगहरण किया, बंधन, तक तो घर में ही वस्त्र को प्रक्षालित किया जाता है। इससे अधिक ताडन, तिरस्कार आदि सब प्रकारों से उसे दण्डित किया। जल की अपेक्षा वाले, बहुतर मल वाले पट को नदी आदि के तट मध्यम पत्र भ्रमित किया हआ है, अप्रधान है-यह सोचकर पर जाकर क्षार, गोमूत्र आदि का प्रयोग कर काष्ठपट्टिका से पीट
राजा ने उसका भोगहरण नहीं किया, बंधन-वध आदि उपायों को पीट कर नाना प्रयत्नों से उसे स्वच्छ किया जाता है।
काम में लिया। कनिष्ठ पुत्र अव्यक्त है, ठगा गया है-यह इसी प्रकार थोड़े अपराध की शुद्धि मासिक यावत् छहमासिक
सोचकर उसके कान पर एक चपेटा दिया और खिंसना की। तप से तथा गुरुतर अपराध की शुद्धि छेद आदि प्रायश्चित्तों से होती
लोक-लोकोत्तर में सर्वत्र वस्तुसदृश दंड दिया जाता है। है। रागद्वेषवृद्धि से दोषवृद्धि तथा प्रायश्चित्तवृद्धि होती है।
प्रधान प्रमाणपुरुष के अपराध करने पर अनेक दोष उत्पन्न होते २९. न्यूनाधिक प्रायश्चित्त : रत्नवणिक् दृष्टांत जं जह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओ निउणो।
आचार्य और उनके उपदेश में अप्रत्यय पैदा होता है। साधु थोवं तु महल्लस्स वि, कासति अप्पस्स वि बहुं तु॥
क्रोध आदि करने में विश्वस्त हो जाते हैं। लोक-गर्दा होती है।
को अधवा कायमणिस्स उ, सुमहल्लस्स विउकागिणीमोल्लं।
क्रोधी गुरु के लिए शिष्य दुर्लभ होते हैं। शिष्य उनसे डरते नहीं वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होती सयसहस्सं ॥
और उनकी आज्ञा की अवमानना करते हैं। अत: पुरुष की प्रधानताइय मासाण बहूण वि, रागहोसऽप्पयाय थोवं तु।
अप्रधानता के आधार पर दंड भी विसदृश होते हैं। रागद्दोसोवचया, पणगे वि जिणा बहुं देंति॥ (व्यभा ४०४३-४०४५)
तुल्लम्मि वि अवराहे, तुल्लमतुल्लं व दिज्जए दोण्हं। निपुण रत्नवणिक् रत्नों का यथार्थ मूल्य जानता है। वह
पारंचिके वि नवमं, गणिस्स गुरुणो उ तं चेव॥ गुणविहीन बड़े रत्न का भी कम और गुणोपेत छोटे रत्न का भी
अहवा अभिक्खसेवी, अणुवरमं पावई गणी नवमं। बहुत मूल्य आंकता है। अथवा वह बड़ी काचमणि का काकिणी
___पावंति मूलमेव उ, अभिक्खपडिसेविणो सेसा॥ जितना ही मूल्य देता है तथा छोटे वज्र रत्न का भी एक लाख मुद्रा
पाराञ्चिकापत्तियोग्येऽप्यपराधपदे सेविते 'गणिनः' का मूल्य दे देता है।
उपाध्यायस्य नवमम्... 'गुरोः' आचार्यस्य पुनः तदेव पाराञ्चिकं इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष राग-द्वेष के अपचय-उपचय के दीयते।
(बृभा ५१२६, ५१२७ वृ) आधार पर कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देते हैं।
अपराध समान होने पर भी पुरुष-विशेष के आधार पर ३०. सदृश अपराध में विसदृश दंड : कुमार-दृष्टांत
प्रायश्चित्त का विधान है। पारांचित योग्य अपराध करने पर आचार्य ....... पुच्छा य कुमारदिटुंतो॥
को पारांचित प्रायश्चित्त ही दिया जाएगा और उपाध्याय को सरिसावराहदंडो, जुगरण्णो भोगहरण बंधादी।
अनवस्थाप्य दिया जाएगा। अथवा पुनः-पुनः प्रतिसेवना कर, उससे मज्झिमे बंधवहादी, अव्वत्ते कण्णादि खिंसा य॥
॥ उपरत नहीं होने पर उपाध्याय को अनवस्थाप्य और शेष साधुओं अप्पच्चय वीसत्थत्तणं च लोगगरहा य दुरभिगमो।
को मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। आणाए य परिभवो, णेव भयं तो तिहा दंडो॥
(निभा २८०९, २८१४, २८१५) ३१. पुरुषभेद से प्रायश्चित्त में भेद शिष्य ने पूछा-सदृश अपराध में विसदृश दण्ड क्यों दिया गुरुमादीया पुरिसा, तुल्लवराहे वि तेसि नाणत्तं। जाता है ? गुरु ने कुमारदृष्टांत दिया
परिणामगादिया वा, इड्डिमनिक्खंत असहू वा॥
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