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प्रायश्चित्त
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आगम विषय कोश-२
जानकर तीन प्रकार के रोगियों (वात-पित्त-कफ-ग्रस्त) को वैसी नालिका से जलसंगलनद्वारा अहोरात्र का अतीत या अवशिष्ट औषधि देता है, जिससे उनका रोग उपशांत हो जाता है। काल जान लिया जाता है। इसी प्रकार पूर्वधर आगमबल से घृतकुट के चार विकल्प
आलोचक के अभिप्राय को सम्यक् रूप से जानकर उसके अनुरूप १. एक घृतकुट से एक रोग का शमन।
प्रायश्चित्त देते हैं, जिससे उसकी शुद्धि हो जाती है। २. एक घृतकुट से अनेक रोगों का शमन।
नालिका का अर्थ है घटिका। सर्वप्रथम उसकी प्ररूपणा ३. अनेक घृतकुटों से एक असाध्य रोग का शमन।
करनी चाहिए। पादलिप्तकृत विवरण में कालज्ञान के प्रसंग में ४. अनेक घृतकुटों से अनेक रोगों का शमन।
उसके छिद्र का परिमाण इस प्रकार प्रतिपादित हैइसी प्रकार एकमासिकी और अनेकमासिकी प्रतिसेवना का दाडिम के फल की आकृति वाली एक लोहमयी नालिका प्रायश्चित्त भी एकमासिक अथवा अनेकमासिक होता है। का निर्माण कर उसके तल में एक छिद्र किया जाता है। उस छिद्र औषधप्रदान के भी चार विकल्प हैं
का परिमाण सुनो-एक तीन वर्ष की गजबालिका के मूल के १. एक औषध से एक रोग का शमन ।
छियानवें बालों को समश्रेणी में पिण्डीभूत कर उनसे नालिका के २. एक औषध से वात-पित्त-कफजनित त्रिविध रोगों का शमन। छिद्र का परिमाण किया जाता है। अथवा दो वर्ष की गजबालिका ३. बहुत औषधियों से एक रोग का शमन।
के पूंछ के बालों से अथवा चार स्वर्णमाषों से निर्मित चार अंगुल ४. बहुत औषधियों से बहुत रोगों का शमन।
की सचिका से नालिका के छिद्र का परिमाण किया जाता है। विभंगज्ञानी रोगों के निदान और औषधसामर्थ्य को जानकर २८. प्रायश्चित्त में नानात्व और विशोधि : घट-पट दृष्टांत औषध देते हैं। धन्वन्तरि तुल्य हैं-जिन। रोगीतुल्य है-साधु। जिणनिल्लेणवकुडए, मासें अपलिकुंचमाणे सट्ठाणं। रोगतल्य है अपराध। औषधतल्य है प्रायश्चित्त।
मासेण विसुज्झिहिती, तो देंति गुरूवदेसेणं॥ जैसे वैद्य विभंगज्ञानीकृत वैद्यशास्त्रों के माध्यम से विभंगज्ञानी एगुत्तरिया घडछक्कएण, छेदादि होंति निग्गमणं। की भांति घृत या औषध के चारों विकल्पों से रोगापनयन क्रिया एतेहि दोसवडी, उप्पत्ती रागदोसेहिं॥ करते हैं, वैसे ही पूर्वधर जिनोपदिष्ट शास्त्रों के माध्यम से प्रायश्चित्त
अप्पमलो होति सुची, कोइ पडो जलकुडेण एगेण। देकर 'जिन' की भांति अपराधी की शोधि करते हैं।
मलपरिवुड्डीय भवे, कुडपरिवुड्डीय जा छ तू॥ ० पूर्वधर : नालिका दृष्टांत
तेण परं सरितादी, गंतुं सोधेति बहुतरमलं तु। नालीय परूवणता, जह तीय गतो उ नज्जते कालो। मलनाणत्तेण भवे, आदंचण-जत्त-नाणत्तं ॥ तह पुव्वधरा भावं, जाणंति विसुज्झए जेणं॥ बहुएहिं जलकुडेहिं, बहूणि वत्थाणि काणि वि विसुझे।
नालिका नाम घटिका, तस्याः पूर्वं प्ररूपणा कर्तव्या, अप्पमलाणि बहूणि वि, काणिइ सुझंति एगेणं॥ यथा पादलिप्तकृतविवरणे कालज्ञाने सा चैवं
(व्यभा ५०४-५०८) "दाडिमपुप्फागारा, लोहमयी नालिगा उ कायव्वा।। जिन आदि आगम-व्यवहारी अपराधी की प्रतिसेवना को तीसे तलंमि छिदं, छिद्दपमाणं च मे सुणह ।। अतिशायी ज्ञान से जानकर जितने प्रायश्चित्त से उसकी विशोधि छन्नउयमूलबालेहिं, तिवस्सजायाए गयकुमारीए। होती है, उतना प्रायश्चित्त देते हैं। श्रुतव्यवहारी गुरु के उपदेश के उज्जुकयपिंडिएहिं, कायव्वं नालियाछिदं॥ आधार पर यथोचित प्रायश्चित्त देते हैं। कोई मासिक प्रायश्चित्त अहवा दुवस्सजायाए गयकुमारीए पुच्छबालेहिं। जितनी प्रतिसेवना कर ऋजुता से आलोचना करता है तो उसे विविहगुणेहिं तेहिं, कायव्वं नालियाछि६॥ स्वस्थान (मासिक) प्रायश्चित्त दिया जाता है। अहवा सुवण्णमासेहि, चउहिं चउरंगुला कया सूई। जलकुंभ और वस्त्र की चतुर्भंगीनालियतलंमि तीए, कायव्वं नालियाछिदं॥" ० एक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होता है।
(व्यभा ४४४ वृ) ० एक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होता है।
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