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आगम विषय कोश - २
३. परतरक - जो तपोबल से हीन हैं, केवल वैयावृत्त्य करते हैं। ४. अन्यतरक - जो तप और वैयावृत्त्य दोनों में समर्थ हैं किन्तु एक समय में एक ही कार्य कर सकते हैं।
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उभयतरक और आत्मतरक - ये दोनों प्रायश्चित्त के अभिमुख होते हैं। परतरक और अन्यतरक जब तक वैयावृत्त्य करते हैं, तब तक उनका प्रायश्चित्त निक्षिप्त रहता है।
३३. छोटी त्रुटि की उपेक्षा : सारणि आदि दृष्टांत
अवसो व रायदंडो, न एवमेवं तु होति पच्छित्तं । संकर - सरिसव-सगडे, मंडववत्थेण दिट्टंता ॥ राजदण्डोऽवश्यमवशेनाप्युह्यते, यदि पुनर्नेति नोह्यते ततः शरीरविनाशो भवति । प्रायश्चित्तमप्यवश्यं भवति वोढव्यं, तद्वहनाभावे चारित्रशरीरविनाशापत्तेः ।" संकरस्तृणाद्यवकरः '' यथा सारण्या क्षेत्रे पाय्यमाने सारणिस्त्रोतसि तृणशूकमेकं तिर्यग् लग्नं तैर्नापनीतं तन्निश्रया अन्यान्यपि तृणशूकानि लग्नानि तन्निश्रया प्रभूतः पंको लग्नः । तत एवं तस्मिन् स्त्रोतसि रुद्धे क्षेत्रे समस्तमपि शुष्कम् । एकः पाषाणः शकटे प्रक्षिप्तः स नापनीतः अन्यः प्रक्षिप्तः कोऽपि गरीयान् पाषाणो यस्मिन् प्रक्षिप्ते तच्छकटं भंक्ष्यति । एरण्डमण्डपे एकः सर्षपः प्रक्षिप्तः स नापपीतः अन्यः प्रक्षिप्तः सोऽपि नापनीतः ।" एरण्ड-मण्डपो भज्यते । शुद्धे वस्त्रे कर्दमबिन्दुः पतितः, स न प्रक्षालितः, अन्यः पतितः सर्वं तद्वस्त्रं कर्दमवर्णं संजातम् एवं तु शुद्धचारित्रं स्तोकायां स्तोकायामापतितायामापत्तौ प्रायश्चित्तेनाशोध्यमानायां कालक्रमेणाचारित्रं सर्वथा भवति । (व्यभा ५५५ वृ)
मुनि को चारित्र की विशुद्धि के लिए स्वेच्छा से प्रायश्चित्त वहन करना चाहिए, न कि राजदण्ड की तरह विवश होकर । राजदण्ड वहन न करने पर शरीर का नाश तथा प्रायश्चित्त वहन न करने पर चारित्र का विनाश होता है।
० सारणि - एक सारणि से खेत की सिंचाई की जाती थी। उसमें एक तृणशूक फंस गया। उसे निकाला नहीं गया, फिर दूसरा फंस गया। कालांतर में धीरे-धीरे वह सारणि कचरे से भर गई । पानी का आगे बढ़ना बंद हो गया । खेत सूख गया।
• शकट - एक गाड़ी में पत्थर भरे जाने लगे। एक काष्ठ टूटा।
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प्रायश्चित्त
उसकी उपेक्षा की गई। भरते भरते एक बड़ा पत्थर गाड़ी में डाला गया और पूरी गाड़ी ही टूट गई।
० मण्डप - एरण्डमण्डप पर प्रतिदिन सरसों के दाने फेंके जाने लगे। एक दिन उनके अत्यधिक भार से मंडप भग्न हो गया। ० वस्त्र–स्वच्छ वस्त्र पर कीचड़ की एक बूंद गिरी, उसे साफ नहीं किया गया । पुनः पुनः बूंदें गिरने से एक दिन वह वस्त्र कर्दमवर्ण वाला हो गया।
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इसी प्रकार छोटे-छोटे अपराधों की उपेक्षा कर प्रायश्चित्त से शुद्धि न करने पर एक दिन चारित्र अचारित्र हो जाता है। ३४. अप्रमत्त भी प्रायश्चित्तभागी
परीषहाणामसहनेन श्रोत्रेन्द्रियादिविषयेष्विष्टानिष्टेषु रागद्वेषाभिगमनतो वा प्रायश्चित्तस्थानापत्त्या'''''। (व्यभा ६२६ की वृ) आवरिता वि रणमुहे, जधा छलिज्जंति अप्पमत्ता वि मूलगुण-उत्तरगुणे, जयमाणा वि हु तथा छलिजंति .... (व्यभा ६२७, ६२८) प्रमत्तमुनि प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसके मुख्य हेतु दो हैं - १. परीषहों को सहन न कर पाना। २. इष्ट-अनिष्ट इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष करना ।
जैसे रणभूमि में प्रविष्ट कवचधारी योद्धा भी शत्रुओं से छले जाते हैं, वैसे ही मूलगुण-उत्तरगुणों में जागरूक श्रमण भी परीषह और उपसर्गों से छले जाते हैं।
३५. निर्ग्रथ - संयत: कितने प्रायश्चित्त ?
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पंचे नियंठा खलु, पुलाग - बकुसा कुसील-निग्गंथा । तह य सिणाया तेसिं, पच्छित्त जधक्कमं वोच्छं ॥ आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तत्तो तवे य छट्टे, पच्छित्त पुलाग छप्पेते ॥ बकुसपडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि । थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्ठहा होति ॥ आलोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे । विवेगो य सिणातस्स, एमेया पडिवत्तिओ ॥ पंचे संजता खलु, नातसुतेणं कधिय जिणवरेणं ...... सामाइसंजताणं, पच्छित्ता छेदमूलरहितऽट्ठा । थेराण जिणाणं पुण, तवमंतं छव्विधं होति ॥
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