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प्रायश्चित्त
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आगम विषय कोश-२
सावेक्खो पवयणम्मि, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। एक्कासणपुरिमड्डा, निव्विगती चेव बिगुणबिगुणा य। चारित्तरक्खणटुं, अव्वोच्छित्तीय तु विसुज्झो॥ पत्तेयाऽसहु दाउं, कारेंति य सन्निगासं तु॥ .."जं जो उ तरति तं तस्स, देंत असहुस्स भासेंती॥ चउ-तिग-दुगकल्लाणं, एगं कल्लाणगं च कारेती.. एवं सदयं दिजति, जेणं सो संजमे थिरो होति। पञ्च अभक्तार्थाः पञ्च आचाम्लानि पञ्च एकाशनकानि न य सव्वहा न दिज्जति, अणवत्थपसंगदोसाओ॥ पञ्चपूर्वार्धानि पञ्च निर्विकृतिकानि एतत् पञ्चकल्याणं तत् दिटुंतो तेणएण, पसंगदोसेण जध वहं पत्तो। ज्येष्ठं यथाक्रमेण च कर्तुमशक्नुवन्तस्तान् दश चतुर्थान् पावंति अणंताई, मरणाइ अवारियपसंगा॥ कारयन्ति तथाप्यशक्नवन्तस्तदद्विगणाचाम्लतपः कारयन्ति
(व्यभा ४२०२,४२०४,४२०७-४२०९) विंशतिमायामाम्लं कारयन्तीत्यर्थः"(व्यभा ४२०५-४२०७वृ) जो शिष्य धृति और संहनन से हीन होते हैं, उनके प्रति यदि
जिस मुनि को अपराध के प्रायश्चित्त स्वरूप पांच कल्याणक आचार्य निरपेक्ष होकर पूरा प्रायश्चित्त देते हैं तो उससे वे विनष्ट हो जाते हैं। प्रवचन में सापेक्ष आचार्य चारित्र की रक्षा के लिा प्राप्त हैं और वह उन्हें ज्येष्ठानक्रम से वहन करने में असमर्थ हो अनवस्था-दोषनिवारण में कुशल होते हैं और उपाय से तीर्थ
आचार्य उसके लिए अनेक विकल्पों का निर्देश करते हैं। परम्परा को अविच्छिन्न रखते हैं। वे प्रायश्चित्त प्राप्त शिष्य के प्रति
पांच उपवास, पांच आचाम्ल (आयंबिल), पांच एकाशन, सापेक्ष होकर, वह अपने सामर्थ्य से एक साथ जितना प्रायश्चित्त
पांच पूर्वार्ध और पांच निर्विकृतिक-इन पच्चीस दिनों का उपवास वहन कर सकता है, उसकी अनुमति देते हैं। वे प्रायश्चित्त के
आदि के क्रम से प्रत्याख्यान करने पर पांच कल्याणक प्रायश्चित्त अनेक विकल्प प्रस्तुत कर उसे इच्छानुसार विकल्प ग्रहण करने
का निर्वहन होता है। जो इस रूप में वहन नहीं कर सकता है, की बात कहते हैं।
आचार्य उसे सानुग्रह दस उपवास का निर्देश देते हैं। यह भी आचार्य प्रायश्चित्तवाही मुनि के प्रति सानुकंप होते हैं, जो
संभव न हो तो इस प्रायश्चित्त के अनुपा गने-दगने के क्रम जितना कर सकता है, उसे उतना प्रायश्चित्त देते हैं। इस विधि से से वहन करवाते हैं-बीस आचाम्ल या चालीस एकाशन या वह शिष्य संयम में स्थिर हो जाता है। यदि आचार्य दोष-सेवन पर
अस्सी पूर्वार्ध या एक सौ साठ निर्विकृतिक करवाते हैं। अथवा प्रायश्चित्त दे ही नहीं तो फिर अनवस्थादोष का प्रसंग आता है। पांच कल्याणक क्रमशः न कर सके तो दूसरा. तीसरा आदि क्रमश: अनिवारित प्रसंग दोष के कारण मनि अनन्त जन्ममरण करता है। करवाकर शेष कल्याणकों को विच्छिन्न क्रम से करवाते हैं। तिल-दृष्टांत-एक बालक स्नान कर, खेलता हुआ तिलों के एक ढेर
यथाक्रम या विच्छिन्न क्रम से करने में भी असमर्थ हो तो में घुस गया। शरीर गीला था। सारे शरीर पर तिल चिपक गए। वह
चार, तीन, दो अथवा एक कल्याणक भी करवाते हैं। दौड़ा-दौड़ा घर आया। माता ने बालक के शरीर से तिल झाड़कर ४२. प्रायश्चित्त एवं चारित्र कब तक? एकत्रित कर लिए। वह प्रतिदिन स्नान कर जाता और तिल चुरा कर एवं भणिते भणती, ते वोच्छिन्ना व संपयं इहइं। लाता। धीरे-धीरे वह चोरी करने में निपुण हो गया। एक बार वह तेसु य वोच्छिन्नेसुं, नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स ॥ पकड़ा गया और मारा गया। मां के कारण यह बालक चोर हुआ, यह देंता वि न दीसंती, न वि य करेंता तु संपयं केई। जान कर राजपुरुषों ने माता के स्तन काट डाले। दूसरा बालक भी तित्थं च नाण-दसण, निज्जवगा चेव वोच्छिन्ना॥ स्नान कर तिलराशि पर गया। शरीर पर चिपके तिल देखकर मां ने
चोद्दसपुव्वधराणं, वोच्छेदो केवलीण वुच्छेदे। डांटा और उन तिलों को इकट्ठा कर पुनः तिलराशि में डाल दिया।
केसिंची आदेसो, पायच्छित्तं पि वोच्छिन्नं ॥ बालक चोरी की आदत से बच गया।
जं जत्तिएण सुज्झति, पावं तस्स तध देंति पच्छित्तं। ४१. कल्याणक प्रायश्चित्त के सापेक्ष विकल्प
जिणचोद्दसपुव्वधरा, तव्विवरीता जहिच्छाए। कल्लाणगमावन्ने, अतरंत जहक्कमेण काउं जो। सव्वं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि। दस कारेंति चउत्थे, तब्बिगुणायंबिलतवे व॥ तत्तो च्चिय निज्जूढं, पकप्पकप्पो य ववहारो॥
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