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ब्रह्मचर्य
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आगम विषय कोश-२
३. चित्रमयी-भित्ति आदि पर चित्रित।
अमुक है। यह तुम्हारी माता है। यह उसकी बहिन है। अभी ४. दन्तकर्ममयी-हाथी-दांत आदि से निर्मित ।
अमुक के साथ संप्रलग्न है। वे किसी एक के साथ प्रतिबंधित ५. शैलकर्ममयी-प्रस्तरखंड से निर्मित।
न होकर, जो मनोज्ञ लगता है, उसी के साथ रहती हैं। यह सुनकर ये प्रतिमाएं इतनी सुन्दर बनाई जाती थीं कि दृष्टिगत होते। उन देवियों के पूर्वभविक पुत्रों आदि ने 'हमारा अपयश होगा' यह ही क्षिप्त चित्त वाला व्यक्ति इनमें आसक्त होकर भ्रष्ट हो जाता। सोचकर विद्या-प्रयोग से उन देवियों को कीलित कर डाला। था। ये प्रतिमाएं देवियों द्वारा सन्निहित-परिगृहीत होती थीं। २. सुखविज्ञप्या दुःखमोचा-इस दूसरे विकल्प का निदर्शन है
सन्निहित देवता (परिगृहीत प्रतिमा) के चार प्रकार हैं- रयणादेवी (रत्नदेवता)। अल्पऋद्धि और कामातुरता के कारण वह १. सुखविज्ञप्या सुखमोचा–जिसके साथ सरलता से प्रतिसेवना सुखविज्ञप्या थी। वह सर्वसुख सम्पादन करने में दक्ष थी, इसलिए की जा सके तथा जिसे सरलता से छोड़ा जा सके।
उसका परित्याग कठिन होता था। वह दुःखमोचा थी। २. सुखविज्ञप्या दुःखमोचा-जिसके साथ सरलता से प्रतिसेवना ३. दुःखविज्ञप्या सुखमोचा-इस तृतीय विकल्प का निदर्शन है की जा सके, परन्तु जिसको छोड़ना कठिन हो।
शुचि और महर्द्धिक विद्यादेवियां। महान् ऋद्धि के कारण वे ३. दुःखविज्ञप्या सुखमोचा-जिसको मनाना कष्टप्रद हो परन्तु
दुःखविज्ञप्या होती हैं (नित्य अत्यन्त अप्रमत्त होकर सघनता से छोड़ना सरल हो।
उनकी आराधना करनी होती है, तभी वे प्रसन्न होती हैं) और ४. दुःखविज्ञप्या दुःखमोचा-जिसके पास काम-प्रार्थना या प्रतिसेवना अपाययुक्त होने के कारण सुखमोचा होती हैं। कठिन हो तथा जिससे विरत होना भी कठिन हो।
४. दुःखविज्ञपना दु:खमोचा-गौरी, गांधारी आदि मातंगविद्यादेवियां
साधनकाल में लोकगर्हितता के कारण दुःखविज्ञप्या तथा इच्छानुरूप ० देवियों के दृष्टांत .
काम की सम्प्रापकता के कारण द:खमोचा हैं। सोपारयम्मि नगरे, रन्ना किर मग्गितो उ निगमकरो।
६. देवशरीर अचित्त नहीं होता अकरो त्ति मरणधम्मा, बालतवे धुत्तसंजोगो॥
पण्णवणमेत्तमिदं, जं देहजुतं अचेतणं दिव्वं । पंच सय भोइ अगणी, अपरिग्गहि सालिभंजि सिंदूरे।
तं पुण जीवविमुक्कं, भिज्जति स तधा जह य दीवो।। तुह मज्झ धुत्त पुत्तादि अवन्ने विज्जखीलणया॥
(निभा २१९८) बिइयम्मि रयणदेवय, तइए भंगम्मि सुइगविज्जाओ।
देहयुत देवता के दो प्रकार हैं-सचेतन और अचेतन। गोरी-गंधाराइ, दुहविण्णप्पा य दुहमोया॥
इनमें अचेतन का प्रकार प्रज्ञापनमात्र है। वस्तुतः देवशरीर अचित्त (बृभा २५०६-२५०८)
नहीं होता क्योंकि वह जीवच्यूत होते ही प्रदीपशिखा की भांति १. सुखविज्ञप्या-सुखमोचा-सोपारक नगर में राजा ने पांच सौ
तत्काल नष्ट हो जाता है। व्यापारियों से कर मांगा। उन्होंने स्वीकार नहीं किया। राजा ने
७. मनुष्य-स्त्री : सुखविज्ञप्या आदि कहा-या तो कर दो या अग्नि में प्रवेश करो। उन्होंने मरना
माणुस्सं पि य तिविहं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं। स्वीकार कर लिया। उनकी पांच सौ पत्नियों ने उनके साथ अग्नि
पायावच्च-कुडुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव।। में प्रवेश कर जीवनलीला समाप्त कर दी। वे मरकर बालतप के उक्कोस माउ-भज्जा, मझं पुण भगिणि-धूतमादीयं। कारण अपरिग्रहीत वानव्यंतर देवियों के रूप में उत्पन्न हईं। उन
खरियादी य जहन्नं, पगयं सजितेतरे देहे ॥ देवियों ने 'सिंदूर' (देवकुल) की पांच सौ शालभंजिकाओं को सुहविन्नप्पा सुहमोइगा य सुहविन्नप्पा य होंति दुहमोया। परिगृहीत कर लिया। अल्पऋद्धिक देव भी उनको नहीं चाहता दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥ था, तब वे धूर्तों के साथ संयुक्त हो गईं। 'यह तेरी नहीं है, यह खरिया महिड्डिगणिया, अंतेपुरिया य रायमाया य। मेरी है'-इस प्रकार धूर्त परस्पर कलह करने लगे। देवियों से उभय सुहविन्नवणा, सुमोय दोहिं पि य दुमोया। पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर धूर्त परस्पर कहने लगे-अरे ! यह तो
(बृभा २५१६, २५१७, २५२७, २५२८)
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