________________
प्रायश्चित्त
पंचण्हं
परिवुड्डी, तीसं ठवणाठाणा, तीसं
***** ********
आरोवणाय ठाणाई ।
(व्यभा ३५८ - ३६०, ३६३)
प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाले ये पुरुष होते हैं - गीतार्थ, अगीतार्थ, अपरिणामक और अतिपरिणामक । जो बहुत मासिकस्थानों का प्रतिसेवी है, वह यदि अगीतार्थ, अपरिणामक या अतिपरिणामी है तो उसके प्रत्यय के लिए स्थापना-आरोपणा की जाती है।
जितने मास या दिवस की प्रतिसेवना की है, उन सबको एकत्र स्थापित किया जाता है, उन्हें स्थापित कर बीस दिन आदि की संक्षेपार्ह प्रतिसेवना को स्थापित किया जाता है- यह स्थापना है । तत्पश्चात् जो अन्य प्रतिसेवित मास हैं, उन सबका प्रायश्चित्त वहन करना है - यह सोचकर एक-एक मास से प्रतिसेवनापरिमाण के अनुरूप अल्प- अल्पतर सम या विषम दिनों को ग्रहण कर एकत्र रोपित किया जाता है - यह आरोपणा है ।
स्थापना के साथ संकलित करने पर जब तक छह मास पूर्ण न हों, तब तक आरोपणा करनी चाहिए। स्थापना और आरोपणा का जो एकत्र संकलन है, वह संचय कहलाता है। स्थापना, आरोपणा और संचय का अर्थ परस्पर प्रतिभक्त / अविभक्त है।
Jain Education International
स्थापना-आरोपणा स्थान -तीस स्थापनास्थान और तीस आरोपणास्थान हैं। प्रथम स्थापनास्थान में जघन्य स्थापना परिपूर्ण बीस अहोरात्र, मध्यम स्थानों में उत्तरोत्तर पांच-पांच की वृद्धि होती है । यथा-पच्चीस, तीस आदि। अंतिम तीसवें स्थापना स्थान में उत्कृष्ट एक सौ पैंसठ अहोरात्र स्थापनीय हैं।
यही क्रम आरोपणा का है, विशेष इतना है कि स्थापना स्थान में जघन्य आरोपणा पन्द्रह अहोरात्र और उत्कृष्ट आरोपणा एक सौ साठ अहोरात्र होती है।
• आरोपणा छह मास की क्यों ? धान्यपिटक दृष्टांत पंचादी आरोवण, नेयव्वा जाव होंति छम्मासा । तेण पणगादियाणं, छण्हुवरिं झोसणं कुज्जा ॥ किं कारणं न दिज्जति, छम्मासाण परतो उ आरुवणा । भणति गुरू पुण इणमो, र्ज कारण झोसिया सेसा ॥ आरोवणनिप्फण्णं, छउमत्थे जं जिणेहिं उक्कोसं । तं तस्स उ तित्थम्मी, ववहरणं धन्नपिडगं वा ॥
४०८
आगम विषय कोश - २
जो जया पत्थिवो होति, सो तदा धन्नपत्थगं । ठावितेऽन्नं
पुरिल्लेणं, ववहरंते य दंडए॥ (व्यभा १४०-१४३)
पूर्व प्राप्त प्रायश्चित्त में पांच अहोरात्र से लेकर छह मास पर्यंत आरोपणा प्रायश्चित्त जानना चाहिए। छह मास से पांच अहोरात्र आदि अधिक हों तो वे सब त्याज्य हैं।
शिष्य ने पूछा- भंते! छह मास से अधिक की आरोपणा क्यों नहीं दी जाती ? गुरु ने कहा- जो तीर्थंकर छद्मस्थ काल में जितना उत्कृष्ट तप करते हैं, उनके तीर्थ में उतने ही प्रमाण में आरोपणा - निष्पन्न तपः कर्म का व्यवहार होता है, उससे अधिक नहीं ।
राजा अपने शासनकाल में जिस धान्यप्रस्थक को स्थापित करता है, उस काल में धान्यमापन के लिए वही प्रस्थक मान्य होता है। जो व्यक्ति पुराने अथवा स्वबुद्धिकल्पित प्रस्थक का व्यवहार करता है, वह दंडित होता है।
० विषम प्रायश्चित्त : तुल्य विशोधि
पुणरवि चोएति ततो, पुरिमा चरमा य विसमसोहीया । किह सुज्झती ते ऊ, चोदग! इणमो सुणसु वोच्छं ॥ कालस्स निद्धयाए, देहबलं धितिबलं च जं पुरिमे । तदणंतभागहीणं, कमेण जा पच्छिमा अरिहा ॥ संवच्छरेणावि न तेसि आसी, जोगाण हाणी दुविहे बलम्मि । जे यावि धिज्जादि अणोववेया, तद्धम्मया सोधयते त एव ॥ पत्थगा जे पुरा आसी, हीणमाणा उ तेऽधुणा । माणभंडाणि धन्नाणं, सोधिं जाणे तहेव उ॥
( व्यभा १४५ - १४८ )
शिष्य ने पूछा- भंते! तब तो प्रथम तीर्थंकर, मध्यवर्ती तीर्थंकरों तथा चरम तीर्थंकर के शिष्यों का प्रायश्चित्त विषम होगा और शोधि भी विषम होगी। वे पूर्ण रूप से शुद्ध कैसे होंगे ?
गुरु ने कहा- वत्स ! प्रथम तीर्थंकर के काल में काल की स्निग्धता के कारण साधकों का जो शारीरिक बल और धृतिबल था, चरम तीर्थंकर के काल में वह बल क्रमशः हीन होता हुआ अनंत भाग हीन हो गया । शरीरबल और धृतिबल की विषमता के कारण विषम प्रायश्चित्त का विधान है।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org