________________
आगम विषय कोश-२
४०९
प्रायश्चित्त
प्रथम तीर्थंकर के काल में दोनों प्रकार के बलों-शारीरिक
जो गीतार्थ है या परिणामी अगीतार्थ है, उसे यदि एक बल और धृतिबल के उपचय के कारण बारह मास तक निरंतर तप मासिकी प्रतिसेवना में (उत्तरोत्तर राग-द्वेष की वृद्धि के कारण) करने पर भी साधुओं के संयमयोगों की हानि नहीं होती थी। शेष अनेक मास, अनेक मासिकी प्रतिसेवना में (अध्यवसाय की मंदता तीर्थंकरों के काल में कालदोष के कारण साधु धृतिबल आदि से के कारण) एक मास अथवा एक मासिकी प्रतिसेवना में एक मास का संपन्न नहीं रहे, किन्तु वे तद्धर्मता-प्रथम अर्हत् के साधुओं की प्रायश्चित्त दिया जाता है (अथवा सात-आठ-मासिकी प्रतिसेवना तरह अशठता, वीर्य का अनिगूहन आदि के कारण उनके समान में छह, पांच या चार मास का प्रायश्चित्त दिया जाता है), तो वह ही शोधि को प्राप्त कर लेते हैं।
उसे सम्यक् ग्रहण करता है, शुद्धि में श्रद्धा करता है, अतः वहां प्राचीन काल में धान्य का प्रमाण करने वाले जो मानभांड--- स्थापना-आरोपणा विधि से प्रायश्चित्त दान का प्रयोजन नहीं है। प्रस्थक थे, वे अब हीन-हीनतर मान वाले हो गए। फिर भी धान्य बहमासिक प्रतिसेवना में एकमासिक प्रायश्चित्त मिलने का परिमाण उन्हीं से होता है क्योंकि संख्या व्यवहार (एक, दो, पर अपरिणामी सोचता है कि जिस एक मास का मुझे प्रायश्चित्त तीन, चार आदि) सदा समान रहता है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त की दिया है, वह एक मास ही शुद्ध हुआ है, शेष मास नहीं-इस विषमता होने पर भी अशठभाव से किया जाने वाला तप:कर्म सभी आशंका से बचने के लिए स्थापना-आरोपणा की विधि से प्रायश्चित्त (प्राचीन और अर्वाचीन)मनियों की शोधि का कारण बनता है। देकर अपरिणामी के सब मास सफल किए जाते हैं। ० शासनभेद और उत्कृष्ट प्रायश्चित्त
बहमासिक प्रतिसेवना में एक मासिक प्रायश्चित्त देने पर बारस अट्टग छक्कग, माणं भणितं जिणेहि सोधिकरं... अतिपरिणामी कहता है-आगम में जो आरोपणा प्रायश्चित्त है,
(व्यभा ४०२) वह स्थापनामात्र है-ऐसा जानकर वह अतिप्रसंग करता हैप्रायश्चित्त का उत्कृष्ट कालमान तीन प्रकार का है- पुनः-पुनः अकरणीय में प्रवृत्त होता है। बहमासिक प्रतिसेवना ० प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के शासन में बारह मास का।
करके भी आलोचना नहीं करता। अत: अतिपरिणामी को स्थापना० मध्यम बाईस तीर्थंकरों के शासन में आठ मास का।
आरोपणा के प्रकार से प्रायश्चित्त दिया जाता है। ० चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के शासन में छह मास का।
सुबहूहि वि मासेहिं, छम्मासाणं परं न दातव्वं । ० उत्कृष्ट प्रायश्चित्त : जीत व्यवहार
अविकोवितस्स एवं, विकोविए अन्नहा होति॥ इह जीतकल्पोऽयं, यस्य तीर्थकरस्य यावत्प्रमाण- गीतो विकोविदो खलु, कतपच्छित्तो सिया अगीतो वि। मुत्कृष्टं तपःकरणं, तस्य तीर्थे तावदेव शेषसाधूनामुत्कृष्टं छम्मासिय पट्ठवणाय तस्स सेसाण पक्खेवो।। प्रायश्चित्तदानम्। (व्यभा ३२४ की वृ)
(व्यभा ४५९,४६१) जिस तीर्थंकर का जितना उत्कृष्ट तप होता है, उसके शासन
बहत अधिक मासार्ह प्रतिसेवना करने पर भी छह मास में शेष साधुओं को उत्कृष्ट प्रायश्चित्त उतना ही दिया जाता है- से अधिक प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। यह जीतकल्प है।
अपरिणामी या अतिपरिणामी अकोविद को स्थापना-आरोपणा ० गीतार्थ के प्रायश्चित्त में स्थापना-आरोपणा नहीं
विधि से अतिरिक्त सब मासों को सफल कर षाण्मासिक तप दिया एगम्मि णेगदाणे, णेगेसु य एगदाणमेगेगं। जाता है। विकोविद को प्रायश्चित्त अन्यथा दिया जाता हैजं दिज्जति तं गिण्हति गीतमगीतो य परिणामी॥ सुबहुमासिक प्रतिसेवना करने पर भी शेष सब मासों को छोड़कर बहुएसु एगदाणे, सोच्चिय सुद्धो न सेसगा मासा। छहमासिक तप दिया जाता है, यहां स्थापना-आरोपणा विधि का माऽपरिणामे, संका, सफला मासा कता तेणं॥ प्रयोग नहीं किया जाता। ठवणामेत्तं आरोवण त्ति इति नाउमतिपरीणामो। जो कृतप्रायश्चित्त गीतार्थ है, वह विकोविद है। जो अगीतार्थ कुज्जा व अतिपसंगं, बहुए सेवित्तु मा विगडे॥ है, प्रथम बार प्रायश्चित्त स्वीकार करता है या कहने पर भी जो
(व्यभा ३५३-३५५) सम्यक परिणत नहीं होता, वह अविकोविद है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org