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प्रायश्चित्त
यदि कोविद षाण्मासिक तप आरंभ कर अंतरालकाल में मासिक आदि प्रतिसेवना करता है तो छह मास के जो शेष मास या दिवस हैं, उन्हीं में पुन: मासिक आदि प्रायश्चित्त का प्रक्षेप कर दिया जाता है, छह मास पूर्ण होने पर तद्विषयक भिन्न प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता ।
वणिक् मरुक और निधि दृष्टांत
वणिमरुगनिही य पुणो, दिट्टंता तत्थ होंति कायव्वा । गीतत्थमगीताण य, उaraणं तेहि कायव्वं ॥ वीसं वीसं भंडी, वणिमरुसव्वा य तुल्लभंडीओ । वीसतिभागं सुंकं, मरुगसरिच्छो इहमगीतो ॥ अहवा वणिमरुगेण य, निहिलंभऽनिवेदिते वणियदंडो । मरुए पूयविसज्जण, इय कज्जमकज्ज जतमजते ॥ (व्यभा ४५४-४५६) • एक वणिक् और एक मरुक - दोनों व्यापार करने निकले। दोनों ने बीस-बीस शकट माल से भर कर एक साथ प्रस्थान किया । सभी शकटों में समान माल था और सभी समान वजन वाले थे। मार्ग में शुल्कपाल ने प्रत्येक शकट से बीसवां बीसवां भाग शुल्क रूप में मांगा। वणिक् चतुर था। उसने सोचा, प्रत्येक शकट से बीसवां भाग देने से माल को उतारने- चढ़ाने में श्रम होगा, इसलिए उसने बीस शकटों में से एक शकट का माल शुल्कपाल को दे दिया, जो प्रत्येक शकट का बीसवां भाग था । मरुक ने प्रत्येक शकट से बीसवां भाग दिया। उसे अत्यंत श्रम करना पड़ा।
वणिक् सदृश गीतार्थ स्थापना - आरोपणा के बिना ही प्रायश्चित्त को स्वीकार कर लेता है। अगीतार्थ मरुक सदृश होता है । उसे स्थापना - आरोपणा के विधान से प्रायश्चित्त देना होता है।
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० निधि दृष्टांत - एक वणिक् को नींव खोदते समय निधि प्राप्त हुई। उसने राजा को निवेदन नहीं किया। राजा ने वणिक् को दंडित किया और निधि का भी हरण कर लिया। मरुक को भी निधि प्राप्त हुई। उसने सारा वृत्तान्त बता दिया। राजा ने मरुक की प्रशंसा की और निधि भी उसको दक्षिणा के रूप में दे दी।
जो कार्य के प्रति यतनावान् होता है, वह मरुक की भांति लाभान्वित होता है । जो कार्य के प्रति अयतनावान् और अकार्य के प्रति यतनावान् होता है, वह वणिक् की भांति हानि में रहता है।
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आगम विषय कोश- २
० कृत्स्न आरोपणा के छह प्रकार
पडिसेवणा य संचय, आरुवणअणुग्गहे य बोधव्वे । अणुघातनिरवसेसं, कसिणं पुण छव्विहं होति ॥ पारंचि सतमसीतं छम्मासारुवणछद्दिणगतेहिं । कालगुरुनिरंतरं व, अणूणमधियं भवे छट्टं ॥ (व्यभा ५७२, ५७३)
कृत्स्न (निरवशेष) के छह प्रकार हैं१. प्रतिसेवना कृत्स्न - पारांचित ।
२. संचय कृत्स्न - एक सौ अस्सी मास । ३. आरोपणा कृत्स्न - छहमासिक ।
४. अनुग्रह कृत्स्न - छहमासिक तप के छह दिन बीतने पर अन्य छहमासिक तप पुनः प्राप्त होने पर पूर्व के पांच मास चौबीस दिन झोषित - परित्यक्त हो जाते हैं।
५. अनुद्घात कृत्स्न - काल गुरु आदि । अथवा निरन्तर प्रायश्चित्त दान ।
६. निरवशेष कृत्स्न - अन्यूनाधिक ।
• अनुग्रह कृत्स्न और निरनुग्रह कृत्स्न प्रायश्चित्त छहि दिवसेहि गतेहिं, छण्हं मासाण होंति पक्खेवो । छहि चेव य सेसेहिं छण्हं मासाण पक्खेवो ॥
ये ते प्रस्थापिताः षण्मासास्तेषां षड् दिवसा व्यूढास्तदनन्तरमन्यान् षण्मासानापन्नास्ततः पूर्वं प्रस्थापित - षण्मासानां पञ्चमासाश्चतुर्विंशतिदिनाश्च झोष्यन्ते । झोषयित्वा च तत्र पाश्चात्याः षण्मासाः प्रक्षिप्यन्ते । एवं पाश्चात्यानामपि षण्मासानां षड् दिवसा झोषिता इति । एतद् धृतिसंहननाभ्यां दुर्बलमपेक्ष्यानुग्रहकृत्स्नमेष: मित्रवाचकक्षमाश्रमणानामादेशः । साधुरक्षितगणिक्षमाश्रमणाः पुनरेवं ब्रुवते, तेषां षण्णां मासानां षट् दिवसाः प्रायश्चित्तं, शेषं समस्तमपि झोषितं, पूर्व-प्रस्थापितषण्मासानामपि षट् दिवसाः झोषिताः । एतद् धृति-संहननदुर्बलमपेक्ष्यानुग्रहकृत्स्नम्। (व्यभा ४९२ वृ)
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प्रस्थापित छहमासिक प्रायश्चित्त के छह दिन बीतने पर यदि किसी दोष के प्रायश्चित्त के रूप में पुनः छहमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पूर्व प्रायश्चित्त के पांच मास और चौबीस दिन की झोषणा (परित्याग) कर पश्चात्वर्ती छह मास का पूर्ववर्ती में प्रक्षेप कर दिया जाता है। जो धृति संहनन से दुर्बल है, उसके
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