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आगम विषय कोश - २
४०७
निशीथ के बीसवें उद्देशक में दान आरोपणा निरूपित है। पांच अहोरात्र से भिन्न मास तक का आरोपणा प्रायश्चित्त नहीं होता । वह एक मास से छह मास पर्यंत होता है ।
(किसी मुनि ने ज्ञान आदि आचार के विषय में कोई अपराध किया। उसे अमुक प्रायश्चित्त दिया गया । तदन्तर उसी मुनि ने कोई दूसरा अपराध भी कर डाला, तब उस मुनि को पहले दिए गए प्रायश्चित्त में वृद्धि कर एक महीने तक वहन करने योग्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसे 'मासिकी आरोपणा' कहते हैं
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पांच दिन के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला तथा एक मास के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला - ऐसे दो अपराध हो जाने पर, उस मुनि के पूर्व प्रायश्चित्त में एक मास और पांच दिन के प्रायश्चित्त की आरोपणा करना 'एक मास और पांच दिन की आरोपणा' कही जाती है। इसी प्रकार चार मास और पच्चीस दिनों की आरोपणा की जाती है। -सम २८ / १ टि)
पट्टविता ठविता या कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा । आरोवण पंचविहा पायच्छित्तं पुरिसजाते ॥ पट्ठविता य वहंते, वेयावच्चट्ठिता ठवितगा उ । कसिणा झोसविरहिता, जहिं झोसो सा अकसिणा उ ॥ उग्घातमणुग्घातं, मासादितवो उ दिज्जते सज्जं । मासादी निक्खित्ते, जं सेसं तं अणुग्घातं ॥ छम्मासादि वहंते, अंतरे आवण्ण जा तु आरुवणा । सा होति अणुग्घाता तिन्नि विगप्पा उ चरिमाए ॥ सा पुण जहन्न उक्कोस-मज्झिमा होंति तिन्नि तु विगप्पा | मासो छम्मासा वा अजहन्नुक्कोस जे मज्झे ॥ (व्यभा ५९९-६०३)
प्रायश्चित्त पुरुष की क्षमता आदि के आधार पर दिया जाता । इस प्रसंग में आरोपणा के पांच प्रकार हैं
१. प्रस्थापिता - आरोपित प्रायश्चित्त को वहन करना । २. स्थापिता – वैयावृत्त्यकाल में प्राप्त प्रायश्चित्त को वैयावृत्त्य समाप्ति तक स्थापित (स्थगित) करना ।
३. कृत्स्ना - आरोपित प्रायश्चित्त में झोष (न्यूनता) न करना, उसे पूर्ण रूप से वहन करना। ( वर्तमान शासन में तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास की है। जिसे इस अवधि से अधिक तप प्राप्त न हो, उसकी आरोपणा को अपनी अवधि में परिपूर्ण होने के कारण कृत्स्ना आरोपणा कहा जाता है।)
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प्रायश्चित्त
४. अकृत्स्ना - आरोपित प्रायश्चित्त को कुछ कम कर देना । (जिसे छह मास से अधिक तप प्राप्त हो, उसकी आरोपणा अपनी अवधि में पूर्ण नहीं होती। छह मास से अधिक तप नहीं दिया जाता। उसे उसी अवधि में समाहित करना होता है। इसलिए उसे अपूर्ण होने के कारण अकृत्स्ना आरोपणा कहा जाता है। आरोपणा के द्वारा प्रायश्चित्त का समीकरण दिया जाता है ।)
५. हाडहडा - प्राप्त प्रायश्चित्त को शीघ्र ही दे देना। इसके तीन प्रकार हैं
• सद्योरूपा हाडहडा -लघु या गुरु मासिक आदि तप, जो भी प्रायश्चित्त प्राप्त है, उसे तत्काल देना, कालक्षेप न करना । ० स्थापिता हाडहडा—प्राप्त प्रायश्चित्त को वैयावृत्त्यकरणकाल में स्थापित करना तथा उस काल में अन्य लघु, गुरु जो भी प्राप्त हो, प्रमादनिवारण के लिए उसे सारा गुरु प्रायश्चित्त ही देना । ० प्रस्थापिता हाडहडा - तप वहन काल में अन्य लघु-गुरु प्राप्त हो तो उसे गुरु प्रायश्चित्त ही देना। इसके तीन विकल्प जघन्य - गुरु मास । उत्कृष्ट - छह गुरु मास । अजघन्योत्कृष्ट - दो यावत् पांच गुरु मास ।
० स्थापना - आरोपणा क्या ? क्यों ?
बहुपडिसेवी सोविय, गीतोऽगीतो वि अपरिणामो य । अहवा अतिपरिणामो, तप्पच्चयकारणा
ठवणा ॥
यावन्तो मासा दिवसा वा प्रतिसेवितास्तावन्तः सर्वे एकत्र स्थाप्यन्ते यत् संक्षेपार्हं विंशिकादिकं प्रतिसेवितं तत् स्थाप्यते, एषा स्थापना । तदनन्तरं येऽन्ये मासाः प्रतिसेवितास्ते सफलीकर्त्तव्या इत्यकैकस्मात् मासात् प्रतिसेवनापरिमाणानुरूपं स्तोकान् स्तोकतरान् समान् विषमान् वा दिवसान् गृहीत्वा एकत्र रोपयति एषा आरोपणा, एषा चोत्कर्षतस्तावत् कर्त्तव्या, यावत्या स्थापनया सह संकलय्यमानाः षण्मासाः पूर्यन्ते नाधिकाः । ततः स्थापनारोपणयोर्यदेकत्र संकलनमेषः संचयः, अयं स्थापनारोपणासंचयानां परस्परप्रतिभक्तोऽर्थः ।
(व्यभा ३५२ वृ) ठवणा होति जहन्ना, वीसं राइंदियाणि पुण्णाई | पण चेव सयं, ठवणा उक्कोसिया होति ॥ आरोवणा जहन्ना, पन्नरराइंदियाइ पुणाई | उक्कोसं सट्ठिसतं, दोसु वि पक्खेवगो पंच ॥
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