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प्रायश्चित्त
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आगम विषय कोश-२
२. ४५ नवकारसी
एक उपवास प्रायश्चित्त के चार भेद हैं२४ प्रहर
१. प्रतिसेवना-निषिद्ध-अकल्प्य आचार का समाचरण। १२ पुरिमड्ड (दो प्रहर)
२. संयोजना-शय्यातरपिंड, राजपिंड आदि भिन्न-भिन्न १० अपार्ध (तीन प्रहर)
अपराधजन्य प्रायश्चित्तों की संकलना। ६ निर्विगय
३. आरोपणा-एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के ४ एकासन
आसेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना। २ आयंबिल
४. परिकुंचना-बड़े दोष को माया से छोटे दोष के रूप में बताना। ३. आगम की आठ गाथाओं का ध्यान में
* प्रतिसेवना का स्वरूप
द्र प्रतिसेवना अर्थ सहित चिन्तन करना।
२२. संयोजना प्रायश्चित्त । ४. आगम की १३ गाथाओं का अर्थ सहित चिन्तन दो उपवास
सेज्जायरपिंडे या, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य। " , २० , , , , , एक बेला
आहाकम्मे य तहा, सत्त उ सागारिए मासा॥ , , ४० , , , , , एक तेला रणो आधाकम्मे, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य। " , ६० , , , , , एक चोला
दसमास रायपिंडे, उग्गमदोसादिणा चेव॥ " , ८० , , , , , एक पंचोला
एतेषां चैकाधिकारिकाणामपि नानात्वं न तु शय्यातर,, ,, १०० ,, , , , , छह का थोकड़ा
पिण्डे एव शेषाण्यन्तर्भवन्ति, ततः सर्वाण्यपि पृथगालोचनीइसी प्रकार बीस गाथाओं के ध्यान को बढ़ाते हुए तत्फलस्वरूप
यानि... शय्यातरपिण्डे मासलघु उदकार्टेपि मासलघु एक-एक थोकड़ा आगे बढ़ाना चाहिए।
स्वग्रामाहृतेपि मासलघु आधाकर्मिके चत्वारो गुरुमासाः... ५. पोष या माघ महीने में पछेवड़ी को बिना ओढ़े आगम की १३
एवं शय्यातरपिण्डे अधिकृत संयोजनाप्रायश्चित्तं सप्तगाथाओं का ध्यान करे तो प्रायश्चित्तस्वरूप प्राप्त एक उपवास, २५
मासाः॥ गाथाओं का दो उपवास, ५० गाथाओं का चार उपवास और १००
(व्यभा १३८, १३९ वृ) गाथाओं का ध्यान करे तो दस उपवास उतरते हैं।
जो मुनि एक साथ शय्यातरपिंड, उदकाई, अभिहत और ६. पोष तथा माघ महीने में रात्रि में आठ हाथ का वस्त्र पहने तथा आधाकर्म-इन चारों दोषों का सेवन करता है तो उसे इन सबकी ओढ़े तो प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त एक तेला, तेईस हाथ ओढ़े- पृथक्-पृथक् आलोचना करनी होती है, एक शय्यातरपिंड में पहने तो एक बेला,अड़तीस हाथ ओढ़े-पहने तो एक उपवास सबका अन्तर्भाव नहीं होता। उतरता है।
शय्यातरपिंड, उदका और अभिहत-इनमें से प्रत्येक का ७. वैशाख तथा ज्येष्ठ महीने में एक प्रहर तक आतापना ले तो एक मासलघु तथा आधाकर्म का चातुर्मासिक गुरु-इस प्रकार अधिकृत तेला उतरता है।
शय्यातरपिंड में सप्तमासिक संयोजना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २१. प्रायश्चित्त के भेद : प्रतिसेवना आदि
एक मुनि पहले राजपिंड का उपभोग कर लेता है, उसकी पडिसेवणा य संजोयणा य आरोवणा य बोधव्वा। आलोचना किए बिना ही आधाकर्म, उदका, अभिहत आदि का पलिचणा चउत्थी पायच्छिन्नं चलटा उ उपभोग करता है-ये सब पथक-पथक आलोचनीय हैं। राजपिंड
पतिषिदस्य वना पतिसेवना. अकल्यसमाचरणम... में उद्गम, उत्पाद आदि दोषों की संयोजना होने पर दस मास का संयोजना शय्यातरराजपिण्डादिभेदभिन्नाऽपराधजनित- प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्तानां संकलनाकरणं, आरोपणा प्रायश्चित्तानामु- २३. आरोपणा प्रायश्चित्त : स्वरूप और प्रकार पर्युपर्यारोपणं, परिकुञ्चना गुरुदोषस्य मायया लघुदोषस्य ... वीसे दाणाऽऽरोवण, मासादी जाव छम्मासा॥ कथनम्।
(व्यभा ३६ वृ) ...." णो पणगादिभिण्णमासंता। (निभा ६२७२ च)
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