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पुस्तक
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आगम विषय कोश-२
(एकांत में) स्निग्ध भूमि में पानी का परिष्ठापन करे और स्निग्ध पुस्तक शब्द जब से संस्कृत और प्राकृत में व्यवहत होने लगा, पात्र का नियमन करे (स्थिर रख दे)। वह उदक से आर्द्र अथवा उसका अर्थ बदल गया। हरिभद्र सूरि ने पुस्तकर्म का अर्थ वस्त्रनिर्मित स्निग्ध पात्र का न आमार्जन-प्रमार्जन करे (न एक बार साफ करे, पुतली, वर्त्तिका से लिखित पुस्तक तथा ताडपत्रीय प्रति किया न बार-बार साफ करे) न पोंछे, न घिसे, न उपलेपन करे, न है।-अनु १/१० का टि) उद्वर्तन करे और न आतापन-प्रतापन करे।
पुस्तकलेखन के दोष
संघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिण्णं। पुस्तक-ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर लिखित ग्रंथ।
संकामण पलिमंथो, पमाय परिकम्मणा लिहणा॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुट फलए तहा छिवाडी य।"
..."तीर्थकरैरदत्तश्चायमुपधिः। स्थानान्तरे च पुस्तकं दीहो बाहल्लपुहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडीपोत्थगो।अंते तणुओ, मझे पिहलो, अप्पबाहल्लो कच्छवि। चउरंगुलदीहो
संक्रामयतः पलिमन्थः । प्रमादो नाम' पुस्तके लिखितमस्तीति वृत्ताकृती मुट्ठीपोत्थगो। अहवा-चउरंगुलदीहो चउरस्सो
कृत्वा न गुणयति, अगुणनाच्च सूत्रनाशादयो दोषाः। परिमुट्ठिपोत्थगो। दुगमाइफलगसंपुडं। दीहो हस्सो वा पिहुलो
कर्मणायां च सूत्रार्थपरिमन्थो भवति। अक्षरलेखनं च कुर्वतः अप्पबाहल्लो छेवाडी।अहवा-तणुपत्तेहिं उस्सिओ छेवाडी।
कुन्थुप्रभृतित्रसप्राणव्यपरोपणेन कृकाटिकादिबाधया च संयमात्मविराधना।
(बृभा ३८२६ वृ) (निभा ४००० चू)
० ग्रामान्तर गमन के समय पुस्तकें कंधों पर वहन की जाती हैं। पुस्तकें पांच प्रकार की होती थीं
उनके घर्षण से कंधे छिल सकते हैं, व्रण हो सकता है। १. गंडी-मोटाई और चौड़ाई में तुल्य तथा चोकोर पुस्तक।
० पुस्तकें शुषिर होने से उनकी पूरी प्रतिलेखना नहीं हो पाती। २. कच्छपी-अन्त में पतली और मध्य में विस्तीर्ण तथा कम मोटाई
० विहार में कंधों पर भार अधिक हो जाता है। वाली पुस्तक।
० कुंथु, पनक आदि प्राणी संसक्त हो जाने से उनकी हिंसा हो ३. मुष्टि-चार अंगुल लंबी और वृत्ताकार अथवा चार अंगुल
सकती है अथवा पुस्तकें चोरों द्वारा चुरा ली जाए तो अधिकरण हो लम्बी और चतुष्कोण पुस्तक।
सकता है। यह उपधि तीर्थंकर द्वारा प्रदत्त नहीं है। ४. संपुटफलक-दोनों ओर जिल्द बंधी पुस्तक। ५. छिवाडी-लम्बी या छोटी, विस्तीर्ण और कम मोटाई वाली ' पुस्तक को स्थानांतरित करने में स्वाध्याय में बाधा आती है। पुस्तक अथवा पतले पन्ने वाली ऊंची पुस्तक।
० ज्ञान पुस्तक में लिखा हुआ है-ऐसा सोचकर परिवर्तना नहीं (बाहल्ल-पुहत्तेहिं, गंडीपोत्थो उ तुल्लगो दीहो।
की जाती है तो सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाता है। इससे सूत्र
के विनष्ट होने का प्रसंग भी आ सकता है। कच्छवि अंते तणुओ, मज्झे पिहुलो मुणेयव्वो॥
० पुस्तक का परिकर्म सूत्र-अर्थ का विघ्न है। चउरंगुलदीहो वा, वट्टागिइ मुट्ठिपुत्थगो अहवा। चउरंगलदीहो च्चिय, चउरंसो होइ विन्नेओ॥
० अक्षर-लेखन कार्य से कुंथु आदि जीवों की हिंसा हो सकती है, संपुडगो दुगमाई, फलगा वोच्छं छिवाडिमित्ताहे। गर्दन आदि अवयव अकड़ सकते हैं, इस प्रकार संयमविराधना तणुपत्तूसियरूवो, होइ छिवाडी बहा बेंति॥ तथा आत्मविराधना होती है। दीहो वा हस्सो वा, जो पिहलो होइ अप्पबाहल्लो। पुस्तक की उपयोगिता तं मुणियसमयसारा, छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥ ....घेप्पति पोत्थगपणगं, कालियणिज्जुत्तिकोसट्ठा॥
-प्रसा १ गा ६६५-६६८ मति-मेधादिपरिहाणिं विज्ञाय कालिकश्रुतस्य..... __ भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'पुस्त' शब्द पहलवी भाषा का है। उत्कालिकश्रुतस्य वा निर्युक्तीनां चाऽऽवश्यकादिप्रतिबद्धानां इसका अर्थ है चमड़ा। चमड़े में चित्र आदि बनाए जाते थे। उसमें दान-ग्रहणादौ कोश इव-भाण्डागारमिवेदं भविष्यतीत्येवमर्थं ग्रन्थ भी लिखे जाते थे इसलिए उसका नाम पुस्तक हो गया। पुस्तकपञ्चकमपि गृह्यते। (बृभा ३८४३ वृ)
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