________________
प्रतिमा
३८६ .
३८६
.
.
आगम विषय कोश-२
सव्वाओ पडिमाओ, साधुं मोयंति पावकम्मेहिं। कमेण हायमाणी तु, अंतिमे होति वा न वा। एतेण मोयपडिमा, अधिगारो इह तु मोएणं॥ पडिणीयऽणुकंपा वा, मोयं वद्धंति गुज्झगा केई। मोकापरित्यागप्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा।
बीजादिजुतं जं वा, विवरीयं उज्झए सव्वं॥ (व्यभा ३७९० वृ)
(व्यभा ३७९४-३७९९) यद्यपि सब प्रतिमाएं साधु को पापकर्म से मुक्त करती हैं,
मोयप्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षु स्वाभाविक और अस्वाभाविक अतः मोचा-मोका हैं, किन्तु मोक (कायिकी) पान की प्रधानता
प्रस्रवण को जानता है। वह दिन में समागत, प्राण, बीज (वीर्य), के कारण इसे मोय/मोकप्रतिमा कहा गया है।
सस्निग्ध और सरजस्क से रहित स्वाभाविक प्रस्रवण पीता है,
इसके विपरीत नहीं पीता। अल्प या बहुत, दिन में जितनी बार । ० मोयप्रतिमा प्रतिपत्ति की विधि
जितना प्रस्रवण होता है, उतना सब पीता है। निसज्जं चोलपढें, कप्पं घेत्तूण मत्तगं चेव। . प्राण-कमिसंकुल उदर में कृमिरूप प्राणी होते हैं। वे कृमि एगते पडिवज्जति, काऊण दिसाण वालोयं॥ उष्णता से अभितप्त हो कायिकी के साथ बाहर आ जायें तो छाया
(व्यभा ३७९२) में उनका विसर्जन करे। मोयप्रतिमा स्वीकार करने वाला भिक्ष निषद्या. चोलपट ०बीज-सस्निग्ध-शुष्क शुक्र पुद्गल बीज और चिकने शुक्र कल्प और कायिकीमात्रक लेकर गांव आदि के बाहर जाता है। पुद्गल सस्निग्ध कहलाते हैं। शरीर के शिथिल होने पर, तपस्या वहां जाकर एकांत में प्रतिमा स्वीकार करता है। मात्रक में प्रस्रवण और उष्णता से संतप्त होने पर शुक्र पुद्गल गिरने लगते हैं। सबीज का व्यत्सर्ग कर दिशा का अवलोकन करता है, अनापात और प्रस्रवण पेय नहीं होता। असंलोक स्थान में प्रस्रवणपान करता है। यद्यपि वह अपने ज्ञानातिशय सरजस्क-प्रमेहकणों को आचार्यों ने सरजस्काधिराज कहा है। (अतिशयज्ञान) से जान लेता है कि यहां कोई गृहस्थ है या नहीं, उसका पान दोषकारक होता है, उससे रोगमुक्ति नहीं होती। फिर भी सामाचारी पालन के लिए दिशावलोकन करता है।
प्रतिमा के प्रारम्भिक दिनों में प्रस्रवण की मात्रा अधिक
होती है। वह क्रमशः कम होती हुई अंतिम दिन में होती भी है या ० मोय ( पेय प्रस्त्रवण) का स्वरूप
नहीं भी होती। कभी कोई प्रत्यनीक या अनुकम्पक गुह्यक देव __ ""जाए मोए आईयब्वे, दिया आगच्छइ आईयव्वे, राई
प्रस्रवण की मात्रा को बढ़ा देता है अथवा बीज आदि से संसक्त आगच्छइ नो आईयव्वे,.."अप्पाणे ..."अबीए."अससणिद्धे
कर देता है। वह प्रस्रवण स्वाभाविक नहीं होता, अत: त्याज्य है। ....."अससरक्खे आगच्छड आईयव्वे। जाए मोए आईयव्वे, तं मोयपतिमा की द्रव्य आदि से मार्गणा जहा-अप्पे वा बहुए वा.
(व्य ९/४०) दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होति सा चउविगप्पा। साभावियं च मोयं, जाणति जं वावि होति विवरीयं। दव्वे तु होति मोयं, खेत्ते गामाइयाण बहिं । पाण-बीय ससणिद्धं, सरक्खाधिराय न पिएज्जा॥ काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इतरं वा।... किमिकुटे सिया पाणा, ते य उण्हाभिताविया।
(व्यभा ३८००, ३८०१) मोएण सद्धि एज्जण्हु, निसिरेते तु छाहिए॥ मोयप्रतिमा के चार विकल्प हैंबीयं तु पोग्गला सुक्का, ससणिद्धा तु चिक्कणा। द्रव्यत:-प्रस्रवण । क्षेत्रत:-गांव आदि के बाहर। कालत:-दिन पडंति सिथिले देहे, खमणुण्हाभिताविया॥ और रात्रि। भावतः-स्वाभाविक और विकृत । पमेहकणियाओ य, सरक्खं पाहु सूरयो। ० मोयप्रतिमा और संहनन । सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कजं न साधए॥ ....न हु रोगि बलिस्स वा एसा॥ बहुगी होति मत्ताओ, आइल्लेसु दिणेसु तु। ...."संघयणधितीजुत्तो, फासयती दो वि एयाओ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org