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प्रतिमा
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आगम विषय कोश-२
उपनीत अलेपकृत)अज्ञात उंछ (भिक्षा) ग्रहण करता है। बहुत से अट्ठअट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइंदिएहिं श्रमण, माहन, अतिथि, कृपण और वनीपकों के लौट जाने पर, दोहिं य अट्ठासीएहिं भिक्खासएहिं "अणुपालिया भवइ॥ भोजन करते हुए एक व्यक्ति के भोजन में से भिक्षा लेता है, दो, नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राइंदिएहिं तीन, चार या पांच के भोजन में से नहीं।
चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासएहिं."अणुपालिया भवइ॥ वह गर्भवती स्त्री, बालवत्सा और बच्चे को दूध पिलाती दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसएणं स्त्री से भिक्षा नहीं ले सकता। दाता के दोनों पैर देहली के भीतर अद्धछटेहि य भिक्खासएहिं."अणुपालिया भवइ॥ या बाहर न हों, एक पैर भीतर और एक पैर बाहर रखकर देहली
(व्य ९/३५-३८) को आक्रांत कर भिक्षा दे, तो ले सकता है।
सप्तसप्तमिका (७४७)भिक्षुप्रतिमा उनचास (४९) दिनप्रतिमाप्रतिपन्न आज इतनी दत्तियां ग्रहण करेंगे—यह ज्ञात
रात की अवधि में एक सौ छियानवे (१९६) भिक्षादत्तियों से नहीं होता, अतः वह अज्ञातोञ्छ है। उसके चार अभिग्रह हैं
यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग और यथातत्त्व (सूत्र, कल्प, मार्ग और १. द्रव्य अभिग्रह-सात पिण्डैषणाओं में से प्रथम पांच से ग्रहण नहीं करता। अंतिम दो में से एक दिन में किसी एक से अलेपकृत
तत्त्व के अनुसार) सम्यक् प्रकार से काया से आचीर्ण, पालित,
शोधित, पूरित, कीर्तित और जिन आज्ञा से अनुपालित की जाती है। भिक्षा ग्रहण करता है। आज मेरे लिए इतनी दत्तियां ग्राह्य हैं-यह
अष्टअष्टमिका भिक्षुप्रतिमा चौसठ (८४८-६४) अहोरात्र द्रव्य अभिग्रह है।
की अवधि में २८८ भिक्षादत्तियों द्वारा अनुपालित होती है। २. क्षेत्रअभिग्रह-देहली विष्कम्भमात्र क्षेत्र में भिक्षा लेना।
नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा इक्यासी (९४९-८१) अहोरात्र में ३. काल अभिग्रह-दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षाटन करना। ४. भाव अभिग्रह-अमुक अवस्था में भिक्षा लेना।
४०५ भिक्षादत्तियों से और दसदसमिका भिक्षुप्रतिमा सौ (१०४
१०=१००) अहोरात्र में ५५० भिक्षादत्तियों से आराधित होती है। पुव्वं व चरति तेसिं, नियट्टचारेसु वा अडति पच्छा। जत्थ भवे दोण्णि काला, चरती तत्थ अतिच्छिते॥ ° सप्त
• सप्तसप्तमिका : दत्तिपरिमाण में सिंहविक्रम-उपमा नवमासगुव्विणिं खलु, गच्छे वज्जति इतरो सव्वा उ।
पढमा सत्तिगा सत्त, पढमे तत्थ सत्तए। खीराहारं गच्छो, वजे तितरो तु सव्वं पि॥
एक्केक्कं गेण्हती भिक्खं, बितिए दोण्णि दोण्णि उ॥
एवमेक्के क्कियं भिक्खं. छब्भेजेक्केक्क सत्तगे। (व्यभा ३८६१, ३८६३) जहां तीन भिक्षाकाल हों, वहां मुनि श्रमणों से पूर्व अथवा गिण्हती अंतिमे जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे॥ श्रमणों के लौट जाने के पश्चात भिक्षा के लिए जाता है। जहां दो अहवेक्कक्कियं दत्ती, जा सत्तेक्केक्कसत्तए। भिक्षाकाल हों, वहां श्रमणों के चले जाने पर भिक्षा करता है।
आदेसो अस्थि एसो वि, सीहविक्कमसन्निभो॥ (प्रतिमाधारी सर्वत्र दायक व ग्राहक के प्रति अप्रीति का वर्जन
(व्यभा ३७८२-३७८४) करते हैं।) गच्छवासी मुनि नवमास वाली गर्भवती स्त्री से भिक्षा प्रथम (सप्तसप्तमिका) प्रतिमा में सात सप्तक (७४७-४९ नहीं लेते। प्रतिमाधारी मुनि किसी भी गर्भवती से भिक्षा नहीं दिन) होते हैं। भिक्षु प्रथम सप्तक में प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति लेते। गच्छवासी क्षीराहार बालक का और प्रतिमाधारी मुनि बालकमात्र । ग्रहण करता है। दूसरे सप्तक में प्रतिदिन दो-दो तथा तीसरे आदि का वर्जन करते हैं (उनसे भिक्षा नहीं लेते)।
सप्तक में क्रमश: एक-एक की वृद्धि करते हुए सातवें सप्तक में ४. सप्तसप्तमिका आदि भिक्षुप्रतिमाएं
सात-सात भिक्षादत्तियां ग्रहण करता है। सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगूणपण्णाए राइदिएहिं । अथवा भिक्षादत्तियों की वृद्धि में दूसरा आदेश भी हैएगेण छन्नउएणं भिक्खासएणं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं प्रत्येक सप्तक के प्रथम दिन से आरंभ कर क्रमश: एक-एक की अहातच्चं सम्मं काएण फासिया पालिया सोहिया तीरिया वृद्धि के क्रम से सातवें दिन सात भिक्षादत्तियां ग्रहण करता है। किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ॥
यह आदेश सिंहविक्रम सदृश है। जैसे सिंह चलते-चलते
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