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प्रतिमा
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आगम विषय कोश-२
कायोत्सर्ग में स्थित हो जाता है, एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता। एगा पाणस्स"बिइज्जाए से कप्पड़ दोण्णि दत्तीओ।.. ० प्रायश्चित्त-मानसिक दोष में भी गुरु प्रायश्चित्त आता है। पन्नरसमीए से कप्पइ पन्नरस दत्तीओ। ० लाभ- 'यह व्यक्ति निश्चित ही प्रव्रजित होगा'-ऐसा ज्ञात बहुलपक्खस्स पाडिवए कप्पंति चोद्दस दत्तीओ भोयणस्स होने पर प्रतिमाधारी उसे उपदेश ही दे सकता है, दीक्षा नहीं दे पडिगाहेत्तए, चोइस पाणस्स। बितियाए कप्पइ तेरस दत्तीओ सकता। वह कल्पनीय अचित्त वस्तु ग्रहण करता है।
..."चउदसीए कप्पड़ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगा ० गमन-वह भिक्षाचर्या और विहार तृतीय पौरुषी में करता है। पाणस्स।अमावासाए से य अभत्तट्ठे भवइ॥" ० प्रतिमा-समापनविधि : ससम्मान गण-प्रवेश
वइरमज्झण्णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स बहुलतीरियमब्भाम णियोग दरिसणं साधु सणि वप्पाहे। पक्खस्स पाडिवए कप्पइ पण्णरस दत्तीओ भोयणस्स दंडिग भोइंग असती, सावगसंघो व सक्कारं॥ पडिगाहेत्तए, पण्णरस पाणस्स। बितियाए से कप्पइ चउद्दस उब्भावणा पवयणे, सद्धाजणणं तहेव बहमाणो। दत्तीओ एवं एगुत्तरियाए हाणीए जाव पण्णरसीए एगा ओहावणा कुतित्थे, जीतं तह तित्थवडी य॥ दत्ती"।सुक्कपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ दो दत्तीओ"""""
(व्यभा ८०८, ८०९) एवं एगुत्तरियाए वड्डीए जाव चोदसीए पण्णरस दत्तीओ....।
पुण्णिमाए अभत्तढे भवइ। प्रतिमाकाल सम्पन्न होने पर प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि, जिस
(व्य १०/३, ५)
उवमा जवेण चंदेण, वावि जवमज्झ चंदपडिमाए। प्रत्यासन्न गांव में बहुत भिक्षाचर और साधु आते हैं, वहां अपने
एमेव य बितियाए, वइरं वजं ति एगटुं ॥ आपको प्रकट करता है, फिर साध या श्रावक के साथ गरु को संदेश भेजता है। गुरु राजा को सूचित करता है। राजा सत्कारपूर्वक
पण्णरसे व उ काउं, भागे ससिणं तु सुक्कपक्खस्स। उसे संघ में प्रवेश करवाता है। राजा के अभाव में भोजिक
जा वड्ढयते दत्ती, हावति ता चेव कालेण॥ (ग्राममखिया), उसके अभाव में श्रावकवर्ग और उसके अभाव में
(व्यभा ३८३३, ३८३४). संघ उसे सम्मानपूर्वक लाता है।
यव (जौ) और वज्र की उपमा से उपमित चन्द्राकार प्रतिमाएं सत्कारपूर्वक प्रवेश से प्रवचन की प्रभावना होती है, इस । यवमध्य तथा वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा कहलाती हैं। तप को करने की श्रद्धा पैदा होती है, संघ के प्रति बहमान बढ़ता है ० यवमध्यचन्द्रप्रतिमा-इस चन्द्रप्रतिमा में मध्यभाग यव की तरह तथा कुतीर्थ की हीलना होती है।
स्थूल तथा आदि-अंत भाग तनु होता है। प्रतिमा अनुष्ठान सम्पन्न होने पर सत्कार किया जाता है
जैसे शुक्ल पक्ष में पन्द्रह भागों में विभक्त चन्द्रमा की यह जीतकल्प (जीतव्यवहार) है। इस दृश्य को देख अनेक व्यक्ति कलाओं में से प्रतिपदा को एक कला दिखाई देती है। द्वितीया को विरक्त हो प्रव्रज्या लेते हैं-इससे तीर्थ की वृद्धि होती है। दो, तृतीया को तीन-इस प्रकार एक-एक की वृद्धि से पूर्णिमा को ३. चन्द्रप्रतिमा के प्रकार
पन्द्रह कलाएं पूर्ण हो जाती हैं। वैसे ही यवमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्न दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-जवमज्झा य
मुनि प्रतिपदा को आहार-पानी की एक-एक दत्ती ग्रहण करता है चंदपडिमा, वइरमज्झा य चंदपडिमा॥ ' (व्य १०/१)
और प्रतिदिन एक-एक दत्ती बढ़ाता हुआ पूर्णिमा के दिन आहार
पानी की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करता है। प्रतिमा के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-यवमध्यचन्द्रप्रतिमा और
कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चन्द्रमा की चौदह कलाएं दृष्टिगोचर वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा।
होती हैं। प्रतिदिन एक-एक कला घटती है। चतुर्दशी को एक कला ० यवमध्य-वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप
दृष्टिगत होती है, अमावस्या को एक भी नहीं। वैसे ही प्रतिमाप्रतिपन्न जवमझण्णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स सुक्क- मुनि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्तियां लेता है और प्रतिदिन पक्खस्स पाडिवए कप्पइ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एक-एक दत्ती कम करते-करते अमावस्या को उपवास करता है।
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