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प्रतिमा
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आगम विषय कोश-२
उदगभएण पलायति, पवति व रुक्खं व रोहए सहसा। ० एकलविहारप्रतिमा की अनुज्ञा-याचना एमेव सेसएसु वि, भएसु पडिकार मो कुणति॥ तो विण्णवेंति धीरा, आयरिए एगविहरणमतीया।
(व्यभा ८१९, ८२२) परियागसुतसरीरे कतकरणा तिव्वसद्धागा॥ जो प्रतिमाप्रतिपन्न अव्यक्त मुनि देवता द्वारा विकुर्वित रोते
__ यथा-'भगवन्! कृतपरिकर्माहमिच्छामि युष्माभिरनुज्ञात हए बच्चों को देखकर विचलित होता है. परुषयज्ञ. जलप्रवाह. एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपत्तुमिति, यः पुनराचार्यः स स्वगआगजनी, सम्मख आते हए हाथी और सर्प से भयभीत होता है. च्छाय कथयति।
(व्यभा ७८९ व) जलप्रवाह के भय से पलायन अथवा उसमें प्लवन करता है यो
जो एकाकीविहारप्रतिमा ग्रहण करने का अभिलाषी है, वह वृक्षारोहण करता है अथवा किसी प्रकार का प्रतिकार करता है, वह
महासत्त्व सम्पन्न शिष्य आचार्यचरणों में निवेदन करता है-भंते ! चतर्लघ प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसी प्रकार शेष स्थितियों में मैं आपकी अनुज्ञा से एकाकिविहारप्रतिमा को स्वीकार करना चाहता भयभीत होने पर भी यही प्रायश्चित्त है।
हूं। प्रतिमाप्रतिपत्ता यदि आचार्य हों तो वे अपने गच्छ के समक्ष
यह विज्ञप्ति करते हैं। एवं सुभपरिणामं, पुणो वि गच्छम्मि तं पडिनियत्तं।
० प्रतिमाप्रतिपत्ता का आचार्य द्वारा परीक्षण जे हीलति खिंसति वा, पावति गुरुए चउम्मासे ॥
न किलम्मति दीघेण वि, तवेण न वि तासितो वि बीहेति। (व्यभा ८३२)
छण्णे वि ठितो वेलं, साहति पुट्ठो अवितधं तु॥ प्रतिमाप्रतिपन्न अव्यक्त मुनि शुभ परिणाम-अध्यवसाय आने पुरपच्छसंथुतेहिं, न सज्जती दिद्विरागमादीहिं । पर अपूर्ण प्रतिमा सम्पन्न कर गण में आ जाता है, तब जो मुनि दिट्ठी-मुहवण्णेहि य, अज्झत्थबलं समूहति॥ असूया से उस प्रतिनिवृत्त मुनि की हीलना-खिंसना करते हैं- "किसदढो, ......... दोहि वि दढो य॥.. ‘धिक्कार है इस भ्रष्टप्रतिज्ञ को'-इस प्रकार निंदा करते हैं, वे
(व्यभा ७८५-७८७) चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
जो दीर्घ तप से क्लांत नहीं होता, वह तपपरिकर्मित और ० प्रतिमाप्रतिपत्ता का पर्याय-श्रुत-संहनन
जो डराने पर भी नहीं डरता, वह सत्त्वपरिकर्मित है। एगूणतीसवीसा, कोडी आयारवत्थु दसमं च।
__ आकाश मेघाच्छन्न है या वह मुनि उपाश्रय में स्थित है,
फिर भी पूछने पर सही समय बता देता है, वह सूत्र परिकर्मित है। संघयणं पुण आदिल्लगाण तिण्हं तु अन्नतरं ।
__ पूर्व-पश्चात्-संस्तुत (माता-पिता, श्वसुर आदि) व्यक्तियों __ (व्यभा ७९०)
के वंदना आदि के लिए उपस्थित होने पर जो दृष्टिराग आदि से ० पर्याय-जन्म पर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष । दीक्षा पर्याय जघन्यतः रंजित नहीं होता. उसकी दष्टि और मख की कांति से आचार्य बीस वर्ष (जो गर्भ सहित आठ वर्ष का प्रव्रजित होता है, दीक्षा उसके इस अध्यात्मबल को जान लेते हैं कि वह एकत्वभावना से पर्याय के बीस वर्ष होने पर एक वर्ष में दृष्टिवाद की योगवाहिता भावित है। जो देह से कश किन्त धति से सदढ है अथवा देह और सम्पन्न करता है-इस प्रकार कुल योग उनतीस वर्ष होता है। धति दोनों से सदढ है. वह बलभावना भावित है। उत्कृष्ट जन्मपर्याय या दीक्षा पर्याय देशोन पूर्वकोटी है-यह पूर्वकोटि ० प्रतिमाप्रतिपत्ति की विधि आयुष्य वाले की अपेक्षा से है।
.... आपुच्छणा विसजण, पडिवजण गच्छसमवायं ।। ० श्रुत-जघन्यतः नौवें प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व की तृतीय आचार परिकम्मितो वि वुच्चति, किमुत अपरिकम्म मंदपरिकम्मा। वस्तु का ज्ञाता, उत्कृष्ट भिन्न (कुछ कम) द
आतपरोभयदोसेसु, होति दुक्खं खु वेरग्गं । ० संहनन-तीन (वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच) में से पढम-बितियादलाभे, रोगे पण्णादिगा य आताए। किसी एक संहनन से सम्पन्न।
सीउण्हादी उ परे, निसीहियादी उ उभए वि॥
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