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आगम विषय कोश-२
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प्रतिसेवना
प्रतिषिद्ध अयोग्य व्यक्ति को प्रव्रजित करना, अनाभाव्य (अनधिकृत) व्यक्ति को दीक्षित करना, अनेषणीय अचित्त वस्तु ग्रहण करना, सोने के आभूषण या सोना आदि लेना, छह जीवनिकाय ग्रहण करना परिग्रह है। वस्त्र आदि धर्मोपकरण परिग्रह नहीं माने जाते। महामूल्यवान् और मर्यादा से अतिरिक्त ग्रहण करना तथा मूर्छा से उनका परिभोग करना परिग्रह है। ० क्षेत्र परिग्रह-उपाश्रय, उसका रमणीय एवं वायुप्रधान भाग, संस्तारक भूमि, कुल, ग्राम, नगर, देश (सिंधु, सौराष्ट्र आदि), राज्य-इन क्षेत्रों में ममत्व करना। ० काल परिग्रह-मर्यादा से अधिक समय तक एक स्थान में रहना, काल-विपर्यास करना (दिन में विहार नहीं करना, रात्रि में करना), काल से अकाल (वर्षाकाल) में विहार करना। ० भाव परिग्रह-उपधि आदि पर ममत्व करना, चोर के भय से उपधि को छिपाकर रखना। राग-द्वेष से भाव परिग्रह होता है।
अणभोगा अतिरित्तं, वसेज्ज अतरंतो तप्पडियरा वा... सप्पडियरो परिणी, वास तदद्वा व गम्मते वासे।....
(निभा ४०४, ४०६) परिग्रह कल्पिका प्रतिसेवना के अनेक कारण हैं, जैसे० अनाभोग-अत्यंत विस्मृति या अनुपयोग के कारण एक स्थान पर सीमा से अधिक रहना।
ग्लान लान में विहार करने का सामर्थ्य न होना। रोगी के परिचारकों का अतिरिक्त रहना आदि। ० उत्तमार्थ-अनशनधारी और उसका वैयावृत्त्य करने वाले एक स्थान पर अतिरिक्त काल तक रह सकते हैं अथवा उसकी परिचर्या हेतु वर्षाकाल में भी अन्यत्र जा सकते हैं। ८. मिश्र प्रतिसेवना और उसके प्रकार
सालंबो सावज, णिसेवते णाणुतप्यते पच्छा। जं वा पमादसहिओ, एसा मीसा तु पडिसेवा॥ दप्पपमादाणाभोगा आतुरे आवतीसु य।
या तिंतिणे सहसक्कारे, भयप्पदोसा य वीमंसा॥
(निभा ४७५, ४७७) ज्ञान आदि का प्रशस्त आलम्बन लेकर जो सावद्य आचरण करता है, किन्तु उसका पश्चात्ताप नहीं करता—यह मिश्र प्रतिसेवना
है। इसमें सालंब पद शुद्ध और अननुतापी पद अशुद्ध है।
किसी प्रमाद से जो प्रतिसेवना की जाती है, वह अशुद्ध है और उसका अनुताप कर लिया जाता है, वह शुद्ध है। इस प्रकार पश्चात्तापयुक्त प्रमादप्रतिसेवना भी मिश्र प्रतिसेवना है। मिश्र प्रतिसेवना के दस प्रकार हैं-दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आतुर, आपद, तिंतिण, सहसाकार, भय, प्रद्वेष और विमर्श (परीक्षा)। ० दर्प-निष्कारण प्रतिसेवना करना। . प्रमाद और अनाभोग के कारण प्रतिसेवना करना। ० आतुर-क्षुधा-पिपासा-परीषह से अथवा ज्वर, श्वास आदि से बाधित होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। . आपद्-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी आपदा में शुद्ध द्रव्य आदि के प्राप्त न होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना।
तिंतिण-पदार्थ की अप्राप्ति पर असंतोष तिनतिनाहट कर की जाने वाली प्रतिसेवना। ० सहसाकार-सहसा अयतना से होने वाली प्रतिसेवना। ० भय-राजा के भय से निषिद्ध कार्य करना। सिंह आदि के भय से वृक्ष पर चढ़ जाना आदि। ० प्रद्वेष-कषायों के वशीभूत होकर की जाने वाली प्रतिसेवना। विमर्श-परीक्षा के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। . इसमें जो पश्चात्तापरहित सालंब प्रतिसेवना है या पश्चात्तापसाहत प्रमाद प्रातसवना है, वह मिश्र प्रातसवना है। ९.दर्पिका और कल्पिका में अन्तर
रागद्दोसाणुगता तु, दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। आराधतो तु कप्पे, विराधतो होति दप्पेणं॥
(निभा ३६३) ० दर्पिका-यह प्रतिसेवना राग-द्वेष से अनुगत है, निष्कारण की जाती है। इसका प्रतिसेवी विराधक (आचारविनाशक) होता है। ० कल्पिका-इस प्रतिसेवना में राग-द्वेष का अभाव होता है। यह सप्रयोजन की जाती है। इसका प्रतिसेवी आराधक होता है।
कज्जाकज्ज जताजत, अविजाणतो अगीतो जं सेवे। सो होति तस्स दप्पो, गीते दप्पाऽजते दोसा॥
__ (व्यभा १७१) अगीतार्थ कार्य-अकार्य तथा यतना-अयतना को नहीं जानता
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