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आगम विषय कोश-२
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प्रतिसेवना
पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादंमि जं पुणो पासे। होने पर भी प्रमाद के कारण वह वधक होता है। ण य तरति णियत्तेउं पादं सहसाकरणमेतं॥ पांच समितियों से समित गुणसम्पन्न मुनि जब कायिक पंचसमितस्स मुणिणो, आसज्ज विराहणा जदि हवेज्जा। प्रवृत्ति करता है, तब विस्मृति से या सहसा उसके द्वारा यदि प्राणी रीयंतस्स गुणवओ, सुव्वत्तमबंधओ सो उ॥ की विराधना हो जाती है, तो भी वह स्पष्टतः अबंधक है। कसाय-विकहा-वियडे, इंदिय-णिद्द-पमायपंचविहे।... प्रमाद प्रतिसेवना के पांच प्रकार हैं-कषाय, विकथा, मद्य,
जा सा अपमत्तपडिसेवा सा दुविहा-अणाभोगा इन्द्रिय और निद्रा प्रमाद। आहच्चओ य। चरिमा णाम अप्पमत्तपडिसेवा। अतिवात- ५. कल्प प्रतिसेवना के स्थान : अपवादपद लक्खणो दप्पो।अनुपयोगलक्खणो प्रमादः।"कारणावेक्ख जे सुत्ते अवराहा, पडिकुट्ठा ओहओ य सुत्तत्थे। अकप्पसेवणा कप्यो। उवओगपुव्वकरणक्रियालक्खणो कप्पंति कप्पियपदे, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥ अप्रमादः।"""अणाभोगो णाम अत्यंतविस्मृतिः। भूयत्थो हत्थादिवातणंतं, सुत्तं ओहो तु पेढिया होति। णाम विआर-विहार-संथार-भिक्खादि संजमसाहिका किरिया।। विधिसुत्तं वा ओहो, जं वा ओहे समोतरति॥
(निभा ९०-९२, ९५-९७, १०३, १०४ चू) ___.."ओहो निसीहपेढिया, तत्थ जे गाहासुत्तेण वा अत्थेण प्रतिसेवना के चार प्रकार हैं-दर्पप्रतिसेवना, कल्पप्रतिसेवना, वा अत्था पडिसेधिता। सामातियादिविधिसुत्तं भण्णति, तत्थ प्रमत्तप्रतिसेवना और अप्रमत्तप्रतिसेवना।
जे अत्था पडिसिद्धा।"उस्सग्गो ओहो त्ति वुत्तं भवति। तत्थ अप्रमत्त प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं
सव्वं कालियसुत्तं ओयरति। एयम्मि ओहे जे अत्था.... ० अनाभोग प्रतिसेवना-जो कषाय, विकथा आदि किसी भी णिवारिया ते 'कप्पंति' कप्पियाए, ते अववायपदेत्यर्थः । प्रकार के प्रमाद में सम्प्रयुक्त नहीं है तथा भूतार्थ-विचारभूमिगमन,
(निभा ४६१, ४६२ चू) विहार. संस्तारक. भिक्षा आदि संयमसाधिका क्रियाओं को करता निशीथ के प्रथम उन्नीस उद्देशकों के हस्तकर्म (नि १/१) हुआ प्राणातिपात नहीं करता है किन्तु ईर्या आदि समितियों में से वाचनापर्यंत (नि १९/३७) सत्रों में निशीथपीठिका के गाथासत्रों अत्यंत विस्मति के कारण उपयुक्त नहीं है-यह अनाभोग या अर्थों में सामायिक आदि विधिसत्रों में तथा ओघसत्रोंप्रतिसेवना है। यद्यपि इसमें प्राणातिपात नहीं होता, फिर भी उत्सर्गविधिप्ररूपक कालिकसूत्रों में जिन अपराधपदों का प्रतिषेध अनुपयुक्तभाव के कारण यह प्रतिसेवना है।
किया गया है, उनका प्रशस्त आलंबनपूर्वक आचरण करना कल्प० सहसाकार प्रतिसेवना-मुनि ने पहले चक्षु से स्थान की प्रतिलेखना प्रतिसेवना है और वह अपवादमार्ग है। अपवादपद मूलगुणों और की, उस समय वहां कोई प्राणी नहीं था। पैर रखते समय पूर्व उत्तरगुणों से संबंधित हैं। प्रतिलेखित स्थान पर प्राणी को देखता है किन्तु वह पैर को ऊपर । ६.दर्प और कल्प प्रतिसेवना के प्रकार रखने में असमर्थ है, तब वह जानता हुआ भी परवशता के कारण दप्प अकप्प निरालंब, चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। उस प्राणी पर पैर रख देता है-यह सहसाकार प्रतिसेवना है। अपरिच्छ अकडजोगी, अणाणुतावी य णिस्संको॥ संक्षेप में प्रतिसेवना के दो ही भेद हैं
दंसण-नाण-चरित्ते, तव-पवयण-समिति-गुत्तिहेउं वा। १. प्रमत्त की दर्पप्रतिसेवना। २. अप्रमत्त की कल्पप्रतिसेवना साहम्मियवच्छल्लेण वावि कुलतो गणस्सेव॥
___ दर्प का लक्षण है-निष्कारण सावध प्रवृत्ति। कल्प का । संघस्सायरियस्स य, असहुस्स गिलाण-बालवुड्डस्स। लक्षण है-सकारण सावध प्रवृत्ति । प्रमाद का लक्षण अनुपयोगयुक्त उदयग्गि-चोर-सावय, भय-कंतारावती वसणे॥ प्रवृत्ति और अप्रमाद का लक्षण उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति है।
एयऽन्नतरागाढे, सदसणे नाण-चरण-सालंबो। जैसे अप्रमत्त मुनि द्वारा प्राणवध होने पर भी वह अप्रमाद पडिसेविउं कयाई, होति समत्थो पसत्थेसु॥ के कारण अवधक होता है, वैसे ही प्रमत्त मुनि द्वारा प्राणातिपात न
(व्यभा ४४६२, ४४६४-४४६६)
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