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प्रायश्चित्त
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आगम विषय कोश-२
गुरुगा
प्रतिक्रमणपूर्वक कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार अविधि से उच्चार आदि के परिष्ठापन तथा सूत्र विषयक परिवर्तना आदि करने पर, रात्री में सावध अथवा अनिष्टसूचक स्वप्न देखने पर, प्रयोजनवश समुद्र अथवा नदी को पार करने के लिए नौका का प्रयोग करने पर तथा यतनापूर्वक पैरों से चलकर नदी-संतरण करने पर व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्गात्मक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। * कायोत्सर्ग में उच्छ्वास परिमाण द्र श्रीआको १ कायोत्सर्ग ९. तपयोग्य प्रायश्चित्त
सज्झायस्स अकरणे, काउस्सग्गे तहा य पडिलेहा। पोसहिय-तवे य तधा, अवंदणा...... । चउ-छट्ठऽट्ठमऽकरणे, अट्ठमि-पक्ख-चउमास-वरिसे य। लहु-गुरु-लहुगा,
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(व्यभा १२९, १३३) यथाविधि यथासमय स्वाध्याय, कायोत्सर्ग और प्रतिलेखना न करने पर तथा अष्टमी आदि पर्वतिथियों में पौषध युक्त तप और अन्य बस्ती में स्थित साधुओं को वन्दना न करने पर मासलघ प्रायश्चित्त आता है।
अष्टमी को उपवास न करने पर मासलघ, पाक्षिक उपवास न करने पर मासगुरु, चातुर्मासिक बेला न करने पर चतर्लघ और सांवत्सरिक तेला न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। ० प्रतिक्रमण और तप प्रायश्चित्त कब? गुत्तीसु य समितीसु य, पडिरूवजोगे तहा पसत्थे य। वतिक्कमे अणाभोगे, पायच्छित्तं पडिक्कमणं॥ केवलमेव अगुत्तो, सहसाणाभोगतो व ण य हिंसा। तहियं तु पडिक्कमणं, आउट्टि तवो न वाऽदाणं ॥
(व्यभा ६०, ६१) गुप्तियों, समितियों, प्रतिरूप आदि विनय के प्रकारों तथा इच्छाकार आदि प्रशस्त योगों को सम्पादित न करने पर. उत्तरगणों में अतिक्रम-व्यतिक्रम होने पर तथा अनजान में अकत्य करने पर प्रतिक्रमण (मिच्छा मि दुक्कडं) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
जो केवल अगुप्त है या केवल असमित है, किन्तु जिसने सहसा या विस्मृति के कारण हिंसा नहीं की है, उसे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आता है। हिंसा होने पर उसे तप प्रायश्चित्त आता है।
अथवा मानसिक स्तर पर असमित या अगुप्त स्थविरकल्पिक मुनि को तप प्रायश्चित्त नहीं आता। ० तप और छेद योग्य प्रायश्चित्त स्थान दंडग्गहनिक्खेवे, आवस्सियाय निसीहियाए य। गुरुणं च अप्पणामे, पंचराइंदिया होंति॥ वेंटियगहनिक्खेवे, निट्ठीवण आतवा उ छायं च। थंडिल्लकण्हभोमे, गामे - राइंदिया पंच॥ एतेसिं अण्णतरं, निरंतरं अतिचरेज तिक्खुत्तो। निक्कारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया छेदो॥
(व्यभा १२५-१२७) पांच अहोरात्रिक तप प्रायश्चित्त के कुछ स्थान ये हैंदंड ग्रहण-निक्षेप के समय प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करने पर।
आवश्यकी-नैषेधिकी सामाचारी का प्रयोग (उच्चारण) न करने पर। ० गुरु को प्रणाम न करने पर। ० संस्तारक को अयतनापर्वक लेने-रखने पर। ० अविधि से थूकने पर। ० उपकरण को अविधि से, धूप से छाया में, छाया से धूप में रखने पर। ० अविधि से स्थण्डिल से अस्थण्डिल में या अस्थण्डिल से स्थण्डिल में अथवा कृष्ण भूमि (सचित्त काली मिट्टी) से नीली (हरित) भूमि में या नीली भूमि से कृष्ण भूमि में जाने पर। ० यात्रापथ से ग्राम में प्रवेश करते समय पैरों की प्रत्यपेक्षाप्रमार्जना न करने पर।
कोई स्वस्थ मनि निष्कारण ही इनमें से किसी स्थान का निरन्तर तीन बार अतिक्रमण कर लेता है, तो उसके पांच अहोरात्र के संयमपर्याय का छेद किया जाता है। ...."आगाढम्मि यकज्जे, दप्पेण वि ते भवे छेदो॥
(व्यभा ७१९) जो आगाढ संघीय प्रयोजन उपस्थित होने पर दर्प से संघकार्य नहीं करता है, वह छेद प्रायश्चित्त का भागी होता है। ० तप और छेद के स्थान तुल्य तुल्ला चेव उ ठाणा, तव-छेयाणं हवंति दोण्हं पि। पणगाइ पणगवुड्डी, दोण्ह वि छम्मास निट्ठवणा॥
(बृभा ७०७)
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