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प्रायश्चित्त
जीव का वाचक है। निश्चय का संयोग होने पर 'तप' प्रायश्चित्त कहलाता है । )
ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा |....... (व्यभा १०६४)
व्यवहार, आलोचना, शोधि और प्रायश्चित्त- ये एकार्थक हैं। २. परिहारस्थान ही प्रायश्चित्त स्थान
परिहारट्ठाणं - परिहारो वज्जणं ति वृत्तं भवति । अहवापरिहारो वहणं ति वृत्तं भवति, तं प्रायश्चित्तं । इह प्रायश्चित्तमेव ठाणं । (नि २० / १ की चू) परिहार का अर्थ है वर्जन अथवा वहन । वहन करने योग्य होता है प्रायश्चित्त, अतः प्रायश्चित्त ही परिहारस्थान है। ३. प्रायश्चित्तराशि की उत्पत्ति : असंख्य असंयमस्थान असमाहीठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि । पलितोवम - सागरोवम, परमाणु ततो असंखेज्जा ॥
प्रायश्चित्तराशिः कुत उत्पन्नः ? असंख्यातानि देशकालपुरुषभेदतोऽसमाधिस्थानानि एतेभ्यो ऽसंयमस्थानेभ्य एष प्रायश्चित्तराशिरुत्पद्यते, पल्योपमे सागरोपमे यावन्ति वालाग्राणि तावन्ति न भवन्ति, किन्तु व्यावहारिकपरमाणुमात्राणि यानि वालाग्राणां खण्डानि तेभ्यो ऽसंख्येयानि ।....... असंयमस्थानानि चोत्कर्षतोप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि ।
(व्यभा ४०१ वृ) प्रायश्चित्तराशि कहां से उत्पन्न होती है? आचार्य कहते हैंबीस असमाधिस्थान हैं, किन्तु देश, काल और पुरुष के भेद से वे असंख्य हो जाते हैं। इसी प्रकार इक्कीस शबल, बाईस परीषह, तीस मोहनीयस्थान - इन सभी असंयमस्थानों से प्रायश्चित्तराशि उत्पन्न होती है।
वे असंयमस्थान कितने हैं ? आचार्य कहते हैं- पल्योपम और सागरोपम में जितने बालाग्र होते हैं, उतने ही असंयम स्थान नहीं हैं, किन्तु वे व्यावहारिक परमाणु जितने खंड वाले बालाग्रों से भी असंख्य गुण अधिक हैं । उत्कृष्ट असंयमस्थान असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं।
४. प्रतिसेवना ही प्रायश्चित्त
पडिसेवियम्मि दिज्जति, पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहे । तेण पडिसेवणच्चिय, पच्छित्तं वा इमं दसहा ॥
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आगम विषय कोश - २
'प्रतिसेविते' प्रतिषिद्धे सेविते प्रतिसेवना प्रायश्चित्तस्य निमित्तमिति कारणे कार्योपचारात् प्रतिसेवनारूपं प्रायश्चित्तमिदं दशधा । (व्यभा ५२ वृ)
प्रतिसेवना - प्रतिषिद्ध का आचरण करने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है । अन्यथा प्रायश्चित्त का प्रतिषेध है । प्रतिसेवना प्रायश्चित्त का निमित्त है, इसलिए कारण में कार्य का उपचार कर प्रतिसेवना को ही प्रायश्चित्त कहा गया है।
प्रतिसेवनारूप प्रायश्चित्त के आलोचना आदि दस प्रकार हैं। ५. प्रायश्चित्त के दस प्रकार
आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तव-छेय-मूल-अणवट्ठया पारंचिए चेव ॥ (व्यभा ५३)
य
प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं
१. आलोचना - अपने दोषों का निवेदन । २. प्रतिक्रमण - मिथ्या मे दुष्कृतं - इसका उच्चारण । ३. तदुभय- दोनों - आलोचना और प्रतिक्रमण | ४. विवेक - अशुद्ध आहार आदि का परिष्ठापन । ५. व्युत्सर्ग -- कायोत्सर्ग ।
६. तप- अनशन आदि तप अथवा मासिक, चातुर्मासिक तप । ७. छेद - दीक्षापर्याय का छेदन ।
(द्र आलोचना )
८. मूल - पुनर्दीक्षा ।
९. अनवस्थाप्य - तपस्यापूर्वक पुनर्दीक्षा । (द्र पारांचित) १०. पारांचित - भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक पुनर्दीक्षा ।
* प्रायश्चित्त के स्थान, परिणाम द्र श्रीआको १ प्रायश्चित्त
( जीव के परिणाम असंख्येय लोकाकाशप्रदेशपरिमाण होते हैं। जितने परिणाम होते हैं, उतने ही अपराध होते हैं और जितने अपराध होते हैं, उतने ही उनके प्रायश्चित्त होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है । प्रायश्चित्त के जो प्रकार निर्दिष्ट हैं, वे व्यवहार - नय की दृष्टि से पिंडरूप में निर्दिष्ट हैं। - तवा ९/२२)
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६. प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के स्थान
जो जत्थ उ करणिज्जो, उद्वाणादी उ अकरणे तस्स । होति पडिक्कमियव्वं, एमेव य वाय- माणसिए ॥
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