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आगम विषय कोश-२
३९७
प्रायश्चित्त
अवराह अतिक्कमणे, वइक्कमे चेव तह अणाभोगे। ७. विवेकाह प्रायश्चित्त भयमाणे उ अकिच्चं, पायच्छित्तं पडिक्कमणं॥ कडजोगिणा तु गहियं, सेजा-संथार-भत्त-पाणं वा।
अपराधे उत्तरगुणप्रतिसेवनरूपे अकृत्यमपि मूलोत्तर- अफासु-अणेसणिज्जं, नाउ विवेगो उ पच्छित्तं॥ गुणप्रतिसेवनालक्षणं भजमाने ..। (व्यभा ९७, ९८ वृ)
(व्यभा १०८) मुनि आचार्य आदि के प्रति अभ्युत्थान आदि करणीय क्रियाएं गीतार्थ मुनि शय्या-संस्तारक या आहार-पानी ग्रहण करता नहीं करता है, तो उसे प्रतिक्रमण (मिच्छा मि दुक्कडं) प्रायश्चित्त है और तत्पश्चात् किसी तरह से उसे ज्ञात हो जाता है कि ये करना होता है। इसी प्रकार मन और वचन संबंधी करणीय क्रियाओं वस्तुएं अप्रासुक और अनेषणीय हैं, तो उसे विवेक प्रायश्चित्त प्राप्त को न करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आता है।
होता है। (सदोष शय्या आदि का त्याग करना 'विवेक' है।) उत्तरगुणप्रतिसेवना रूप अपराध में अतिक्रम और व्यतिक्रम
..."वसहि त्ति य कता, ठिएसु अतिसेसिय विवेगो॥ होने पर तथा अनजान में मूलगुण-उत्तरगुणप्रतिसेवना रूप अतिक्रमण
__ अशठभावेन गिरिराहुमेघमहिकारज:समावृते सवितरि होने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
उद्गतबुद्ध्या अनस्तमितबुद्ध्या वा गृहीतमशनादिकं पश्चात् ० तदुभय प्रायश्चित्त के स्थान
ज्ञातमनुद्गते अस्तमिते वा सूर्ये गृहीतं तथा प्रथमपौरुष्यां संकिए सहसक्कारे भयाउरे आवतीसु य। गृहीत्वा-चतुर्थामपि पौरुषीं यावत् धृतमशनादि शठमहव्वयातियारे य, छण्हं ठाणाण बज्झतो॥ भावेनाऽशठभावेन वा अर्द्धयोजनातिक्रमेण नीतमानीतं वाश
इह केषाञ्चिद् अनवस्थितपारांचिते प्रायश्चित्ते द्वे अपि नादि तत्र विवेक एव प्रायश्चित्तम्। (व्यभा १०९ वृ) एकं प्रायश्चित्तमिति प्रतिपत्तिः तन्मतेन नवधा प्रायश्चित्तम्। विवेक प्रायश्चित्त के कुछ स्थान ये हैंतत्र चाद्ये द्वे प्रायश्चित्ते मुक्त्वा शेषाणि सप्त प्रायश्चित्तानि, ० आधाकर्मिक वसति में ठहरने पर और कुछ दिन बाद ज्ञात तेषां च सप्तानां प्रायश्चित्तानां यदाद्यं प्रायश्चित्तं तद् उपरित- होने पर उस वसति को छोडना होता है। नानां षण्णां बाह्ये नाभ्यन्तरमिति,“यच्च तदुभयं तच्चेवं. ० पर्वत, राह, बादल, कुहासा और रज से सूर्य आवृत हो जाता प्रथमं गुरूणां पुरत आलोचनं, तदनन्तरं गुरुसमादेशेन मिथ्या- है। ऐसी स्थिति में यदि मुनि अशठभाव से सूर्य उग गया है या दुष्कृतदानम्।
(व्यभा ९९ वृ) सूर्य अस्त नहीं हुआ है-इस बुद्धि से अशन आदि ग्रहण कर लेता ___ मैंने प्राणातिपात किया या नहीं? मैं असत्य बोला या है, किन्तु बाद में उसे ज्ञात हो जाए कि सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त नहीं?-इस प्रकार शंकित होने पर, सहसा दोष सेवन होने पर, के पश्चात् अशन आदि ग्रहण किया है तो उस गृहीत अशन आदि भय, रोग तथा आपदाओं के समय दोष सेवन होने पर, महाव्रतों का त्याग करना होता है। में सहसा अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार होने पर अथवा
० प्रथम पौरुषी में गृहीत अशन आदि को चतर्थ पौरुषी तक रखने आशंका होने पर-इनमें तदुभय (आलोचना और प्रतिक्रमण)
वाला मुनि विवेक प्रायश्चित्तार्ह है। प्रायश्चित्त आता है। यह अंतिम छह प्रायश्चित्तों के भीतर नहीं शठ या अशठभाव से आधे योजन का अतिक्रमण कर ले जाया है, बाह्य है।
गया या लाया गया अशन आदि विवेक प्रायश्चित्त के योग्य है। कुछ आचार्य अनवस्थाप्य और पारांचित को एक मानकर ८. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) प्रायश्चित्त के स्थान प्रायश्चित्त के नौ भेद मानते हैं। प्रथम दो को छोडकर शेष सात में गमणागमण-वियारे, सुत्ते वा सुमिण-दसणे राओ। प्रथम प्रायश्चित्त-'तदुभय' है। वह शेष छह से बाह्य है। तदुभय नावा नदिसंतारे, पायच्छित्तं विउस्सग्गो॥ से आशय है-पहले गुरु के पास आलोचना करना, फिर गुरु के
__(व्यभा ११०) आदेश से 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहना।
कार्यवश उपाश्रय से बाहर जाने-आने पर ऐर्यापथिकी
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