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प्रायश्चित्त
एए दो आदेसा । दाणपच्छित्तं भणितं । अहवा दो एए। इमोतिओ आवत्ति पच्छित्तेण भण्णति । (निभा ११६, ११७ चू) • एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों का व्यापादन होने पर क्रमशः उपवास से द्वादश भक्त तक का प्रायश्चित्त। यह एक आदेश है। द्वितीय आदेश - एक कल्याणक यावत् पांच कल्याणक
तृतीय आदेश - पृथ्वी, अप्, तेजस् और वायुकाय - इन चार जीवनिकायों तथा परित्त वनस्पति का संघट्टन होने पर लघु, परितापन में गुरु तथा अपद्रावण में चतुर्लघु । शेष क्रम इस प्रकार हैपरितापन अपद्रावण
संघट्टन
चतुर्गुरु
षड्लघु
०
०
साधारण वनस्पति
द्वीन्द्रिय
त्रीन्द्रिय
चतुरिन्द्रिय
पंचेन्द्रिय
मासगुरु
चतुर्लघु
चतुर्गुरु
षड्लघु
चतुर्लघु
चतुर्गुरु
षड्लघु
षड्गुरु
छेद
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षड्गुरु
छेद
षड्गुरु
मूल
सुयस्स अव .....सुत्तस्स देसे चउलहुगा अत्थस्स देसे चउगुरुगा। सव्वसुयस्स अवण्णे भिक्खुणो मूलं । अभिसेस्स अणवट्टो । गुरुणो चरिमं । एयं दाणपच्छित्तं ।
(निभा ३३०१ की चू)
श्रुत का देशतः अवर्णवाद करने पर चतुर्लघु और अर्थ का देशतः अवर्णवाद करने पर चतुर्गुरु तथा सर्वश्रुत का अवर्णवाद करने पर भिक्षु को मूल उपाध्याय को अनवस्थाप्य और आचार्य को पारांचित प्राप्त होता है - यह दान प्रायश्चित्त है ।
उवदेसो उ अगीते, दिज्जति बितिओ उ सोधिववहारो।....
द्विविधः साधुः गीतार्थोऽगीतार्थश्च । तत्र यो गीतार्थः सः गीतार्थत्वादनाभाव्यं न गृह्णातीति न तस्योपदेशः । यः पुनरगीतार्थस्तस्यानाभाव्यं गृह्यत उपदेशो दीयते, यथा न युक्तं तवानाभवत् गृहीतुं यदि पुनरनाभवत् ग्रहीष्यसि, ततस्तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं भविष्यतीत्युपदेशदानं, तत एवमुपदेशे दत्ते सति दानप्रायश्चित्तं दीयते । (व्यभा ३३ वृ) के दो प्रकार हैं - गीतार्थ और अगीतार्थ । गीतार्थ साधु साधु गीतार्थता के कारण अनाभाव्य ( अकल्पनीय ) का ग्रहण नहीं करता, इसलिए उसे उपदेश नहीं दिया जाता। जो अगीतार्थ है, वह अनाभाव्य का ग्रहण करता है, इसलिए उसे उपदेश दिया जाता है।
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आगम विषय कोश - २
यथा - 'अनाभवत् ग्रहण करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। यदि अनाभवत् ग्रहण करोगे तो प्रायश्चित्त लेना होगा' - इस प्रकार उपदेश देने के पश्चात् दान प्रायश्चित्त दिया जाता है।
० दान, काल और तप प्रायश्चित्त : गुरु भी लघु जं तु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुगं । जं पुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ ॥ काल- तवे आसज्ज व, गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो । कालो गिम्हो उ गुरू , अट्ठाइ तवो लहू सेसो ॥ (बृभा ३००, ३०१ )
जिस किसी को अष्टमभक्त आदि गुरु प्रायश्चित्त अथवा निर्विकृति आदि लघु प्रायश्चित्त निरन्तर दिया जाता है, वह गुरु दान प्रायश्चित्त है । यदि गुरु प्रायश्चित्त अन्तर से दिया जाता है, तो वह गुरु भी लघु हो जाता है -
काल और तप की अपेक्षा से गुरु प्रायश्चित्त भी लघु हो जाता है और लघु भी गुरु हो जाता है। काल की दृष्टि से ग्रीष्मऋतु कालगुरु है और तप की दृष्टि से अष्टमभक्त (तेला) आदि तपोगुरु हैं। शेषकाल - वर्षा व हेमंत ऋतु काललघु हैं और तपनिर्विकृतिक से षष्ठभक्त पर्यन्त तपोलघु हैं।
"लहुगा चतु जमलपदा,
॥
जमलपदं णाम तवकाला । तेहिं विसेसिया कज्जति । पढपए दोहिं लहुं, बितियपदे कालगुरुं, ततियपदे तवगुरुं, उत्थे दोहिं पि गुरुं । (निभा १३१ चू)
तप और काल के आधार पर गुरु लघु के चार विकल्प हैं१. तप से लघु काल से लघु ३. तप से गुरु काल से लघु २. तप से लघु काल से गुरु ४. तप से गुरु काल से गुरु | १४. उद्घातिक - अनुद्घातिक ( लघु-गुरु ) प्रायश्चित्त
गुरुकमिति वा अनुद्घातीति वा कालकमिति वा गुरुकस्य नामानि । लघुकमिति वा उद्घातितमिति वा शुक्लमिति वा लघुकस्य नामानि । (बृभा २९९ की वृ) गुरुक, अनुद्घातिक और कालक- ये गुरु प्रायश्चित्त के तथा लघुक, उद्घातिक और शुक्ल-ये लघु प्रायश्चित्त के पर्यायवाची नाम हैं I
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