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प्रतिसेवना
११. शठ-अशठ भाव से प्रतिसेवना १२. विराधना या प्रतिसेवना का हेतु १३. प्रतिसेवना और कर्म
• अप्रतिसेवी दृढधर्मी
१४. कल्पिका प्रतिसेवना भी सावद्य * अतिचार: ज्ञान..' चारित्र और भाव १५. बकुश - प्रतिसेवना और सचारित्र तीर्थ * प्रतिसेवना : आरोपणा का एक भेद * प्रतिसेवना पारांचित के प्रकार
* निरंतर प्रतिसेवी और कृतिकर्म
द्र आचार
द्र प्रायश्चित्त
द्र पारांचित
द्र कृतिकर्म
१. प्रतिसेवना का स्वरूप
पडिसेवणा तु भावो, सो पुण कुसलो व होज्जऽकुसलो वा । कुसलेण होति कप्पो, अकुसलपरिणामतो दप्पो ॥ (व्यभा ३९ )
प्रतिसेवना जीव का परिणाम है। वह परिणाम कुशल (ज्ञान आदि) और अकुशल (अविरति आदि) दोनों प्रकार का हो सकता है। कुशल परिणाम से की गई प्रतिसेवना कल्पिका और अकुशल परिणाम से की गई प्रतिसेवना दर्पिका कहलाती है। २. प्रतिसेवना के दो प्रकार, तीन रूप
दप्पे सकारणमि य, दुविधा पडिसेवणा समासेणं । एक्केक्का वि य दुविधा, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥ ( निभा ८८ )
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प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं
१. दर्प प्रतिसेवना-राग-द्वेष की प्रेरणा से निष्कारण की जाने वाली । २. कल्प प्रतिसेवना - विशेष परिस्थितिवश की जाने वाली ।
प्रत्येक के दो प्रकार हैं- मूलगुण और उत्तरगुण प्रतिसेवना । जेण मुसावाएण अभिहिण पारंचियं भवति एस उक्कोसो मुसावाओ, जेण पुण दसराइंदियाति जाव अणवट्ठ एस मज्झिमो, जेण पंचराइंदियाणि एस जहण्णो । (निभा ८९ की चू) मूलगुण प्रतिसेवना के तीन रूप हैं
० उत्कृष्ट - यथा - जिस मृषावाद से पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त हो । ० मध्यम - जिससे दस अहोरात्रिक यावत् अनवस्थाप्य प्राप्त हो । ० जघन्य - जिस प्रतिसेवना से पांच अहोरात्र का प्रायश्चित्त प्राप्त हो ।
आगम विषय कोश- २
३. मूलगुण- उत्तरगुण-प्रतिसेवना : अतिक्रम'''''संरंभ''''' मूलगुण- उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेणं । मूलगुणे पंचविहा पिंडविसोहादिया इयरा ॥ सा पुण अइक्कम वइक्कमे य अतियार तह अणायारे । संरंभ समारंभे, आरंभे रागदोसादी ॥ आधाकम्मनिमंतण, पडिसुणमाणे अतिक्कमो होति । पदभेदादि वतिक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो । उद्दवतो,
आरंभो
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उत्तरगुणप्रतिसेवना अतिक्रमादिभेदतश्चतुःप्रकारा, मूलगुणप्रतिसेवना संरंभादिभेदतस्त्रिप्रकारा ।
(व्यभा ४१-४३, ४६ वृ)
संक्षेप में प्रतिसेवना दो प्रकार की है-मूलगुण विषयक प्रतिसेवना और उत्तरगुणविषयक प्रतिसेवना । मूलगुण विषयक प्रतिसेवना पांच प्रकार की है- प्राणातिपात आदि । पिंडविशोधि आदि उत्तरगुणविषयक प्रतिसेवना है, जो अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार के भेद से चार प्रकार की है।
आधाकर्म आहार का निमंत्रण स्वीकार करना अतिक्रम है। उसके लिए प्रस्थान करना ( यावत् घर में प्रवेश कर पात्र फैलाना) व्यतिक्रम है । उसे ग्रहण करना ( यावत् मुंह में डालना) अतिचार और निगल जाना अनाचार है।
मूलगुण प्रतिसेवना के तीन प्रकार हैं- संरंभ, समारंभ और आरंभ। संरंभ आदि के हेतु हैं-राग-द्वेष और अज्ञान ।
प्राणातिपात आदि का संकल्प संरंभ, दूसरे को परितप्त करने वाला व्यापार समारंभ और प्राणव्यपरोपण करना आरंभ है। ४. प्रतिसेवना के चार प्रकार
दप्पे कप्प - पत्ताणा भोग आहच्चतो य चरिमा तु । ... एसेव चतुह पडिसेवणा तु संखेवतो भवे दुविधा । दप्पो तु जो पमादो, कप्पो पुण अप्पमत्तस्स ॥ णय सव्वो विपत्तो, आवज्जति तध वि सो भवे वधओ । जह अप्पमादसहिओ, आवण्णो वी अवहओ उ ॥ ....... सा तु अणाभोगेणं, सहसक्कारेण वा होज्जा ॥ अण्णतरपमादेणं, असंपउत्तस्स गोवउत्तस्स । होतणाभोगो ॥
यादिसु
भूतत्थेसु अवट्टतो
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