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प्रतिसेवना
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आगम विषय कोश-२
हआ जो प्रतिसेवना करता है, वह उसकी दर्पिका प्रतिसेवना है। के अनुरूप कृष्ण (गुरु) मासिक, चातुर्मासिक या पाण्मासिक तप गीतार्थ भी दर्पिका अथवा अयतना से कल्पिका प्रतिसेवना करता है करो-यह उद्घात-अनुद्घात (लघु-गुरु) प्रायश्चित्त है। तो वह भी प्रायश्चित्त का भागी होता है।
११. शठ-अशठ भाव से प्रतिसेवना १०. गूढ़ पदों में प्रतिसेवना-प्रायश्चित्त-कथन
कप्पम्मि अकप्पम्मिय, जो पुण अविणिच्छितो अकजंपि। पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। कजमिति सेवमाणो, अदोसवं सो असढभावो॥ पढमे छक्के अभितरं त पढमं भवे ठाणं॥ जं वा दोसमजाणतो, हेहंभूतो निसेवती। बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। होज्ज निद्दोसवं केण, विजाणतो तमायरं॥ पढमे छक्के अळिभतरं तु पढमं भवे ठाणं॥
(व्यभा १७४, १७५) पढमं कजं नामं, निक्कारणदप्यतो पढमं पदं।
जो निश्चय नहीं कर पाता कि यह कल्प्य है या अकल्प्य, पढमे छक्के पढम, पाणऽइवाओ मुणेयव्वो॥
वह अकल्प्य का कल्पिक बुद्धि से सेवन करता हुआ भी दोष का एवं तु मुसावाओ, अदिन्न-मेहुण-परिग्गहे चेव।
भागी नहीं होता। इसका हेतु है उसका अशठभाव बिति छक्के पुढवादी, तति छक्के होयऽकप्पादी॥ पढमस्स य कजस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता।
(. समियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया नक्खत्ते भे पीला, सुक्के मासं तवं कुणसु॥
वा, समिया होइ उवेहाए।-आयारो ५/९६ एवं ता उग्घाए, अणुघाते ताणि चेव किण्हम्मि।
व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु सम्यग्
मानने वाले के मध्यस्थ भाव के कारण वह सम्यग् होता है।) मासे चउमास-छमासियाणि......॥
जिसे गुण और दोष का विवेक नहीं है, वह दोष को नहीं (व्यभा ४४६८, ४४७५, ४४८१, ४४८२, ४४९०, ४४९३) प्रतिसेवना संबंधी गूढ़ पद-यहां प्रथम कार्य से तात्पर्य
जानता हुआ अशठभाव से प्रतिसेवना करता है, वह निर्दोष है।
किन्तु जो जानता हुआ भी उस दोष का सेवन करता है, वह निर्दोष है-दर्प प्रतिसेवना और प्रथम पद का अर्थ है-निष्कारण दर्प
कैसे हो सकता है ? जानता हुआ व्यक्ति अध्यवसाय की मलिनता (दशविध दर्पप्रतिसेवना का प्रथम भेद) से सेवित । द्वितीय कार्य का अर्थ है-कल्पप्रतिसेवना और उसके प्रथम पद का अर्थ है
के कारण ही दोष का सेवन करता है, वह निर्दोष नहीं हो सकता। दर्शन (कल्पिका के चौबीस प्रकारों में प्रथम प्रकार) के निमित्त १२. विराधना या प्रतिसेवना का हेतु प्रतिसेवित।
किध भिक्खू जयमाणो, आवज्जति मासियं तु परिहारं। दोषसेवन के तीन षट्क-अठारह स्थान हैं
कंटगपहे व छलणा, भिक्खू वि तहा विहरमाणो॥ ० प्रथम षट्क का अर्थ है-व्रतषट्क-प्राणातिपात विरमण से
तिक्खम्मि उदगवेगे. विसमम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। रात्रिभोजनविरमण पर्यंत । इनमें प्रथम स्थान है-प्राणातिपात ।
कणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावए पडणं॥ ० द्वितीय षट्क का अर्थ है-कायषट्क-पृथ्वीकाय आदि । तह समण-सुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। ० तृतीय षट्क का अर्थ है-अठारह में अंतिम छह स्थान (अकल्प, कम्मोदयपच्चइया, विराहणा कस्सइ हवेज्जा।। गृहिपात्र, पर्यंक, निषद्या, स्नान और शोभा)।
(व्यभा २२२-२२४) गूढ़ पदों में प्रायश्चित्त-आलोचनार्ह आचार्य प्रथम कार्य (दर्प) शिष्य ने पूछा- भंते ! यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला भिक्षु संबंधी दशविध (दर्पप्रतिसेवना के दर्प आदि दस भेद) आलोचना मासिक आदि प्रायश्चित्त क्यों प्राप्त करता है?
को सुनकर शिष्य से कहते हैं-नक्षत्र (मास) जितने प्रायचित्त से आचार्य ने कहा-जैसे कंटकाकीर्ण पथ में सावधानीपूर्वक • शुद्धि हो सके, उतनी व्रत की पीड़ा हुई है (दोष सेवन किया है), चलने वाले पथिक के पैर भी कांटों से बिंध जाते हैं, तीव्र अतः तुम शुक्ल (लघु) मासिक तप करो। इसी प्रकार प्रतिसेवना जलप्रवाह, विषम-दुर्गममार्ग या पंकिलमार्ग में प्रयत्नपूर्वक चलने
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