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आगम विषय कोश - २
• अपरिकर्मित अयोग्य : शावक दृष्टांत वासगगतं तु पोसति, चंचूपूरेहि सउणिया छावं । वारेति तमुडुंतं, जाव समत्थं न जातं तु ॥ एमेव वणे सीही, सा रक्खति छावपोयगं गहणे । खीरमउपिसियचव्विय, जा खायइ अट्ठियाई पि ॥ ..... पडिवक्खेण उवमिमो, सउणिग- सीहादिछावेहिं ॥ (व्यभा ७७१, ७७२, ७७४)
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शकुनिका अपने शावक का नीड़ में ही चंचुपूर द्वारा पोषण करती है, उड़ते हुए शिशु को तब तक रोकती है, जब तक वह समर्थ नहीं हो जाता। इसी प्रकार गहन वन में स्थित सिंहनी अति लघु शावक की व्याघ्र आदि से रक्षा करती है। वह अपने दूध और मृदु- चर्वित मांस से आत्मीय शिशु का तब तक पोषण करती है, जब तक कि वह अस्थियां खाने नहीं लग जाता ।
अकृतपरिकर्मा एकलविहारी नीड़ से निर्गत असंजातपक्ष पक्षीशावक और गुफा से निर्गत क्षीराहार सिंहशावक की भांति विनष्ट हो जाता है।
(जो भिक्षु अव्यक्त (अपरिपक्व ) अवस्था में अकेला ग्रामानुग्राम विहार करता है, उसकी यात्रा दुर्यात्रा होती है और उसका पराक्रम दुष्पराक्रम होता है। अपरिपक्व भिक्षु थोड़े से प्रतिकूल वचन सुनकर कुपित हो जाता है, थोड़ी-सी प्रशंसा सुनकर महान् मोह से मूढ़ हो जाता है। अज्ञानी और अद्रष्टा भिक्षु बार-बार आने वाली बहुत सारी बाधाओं का पार नहीं पा सकता। 'मैं अव्यक्त अवस्था में अकेला विहार करूं' - यह तुम्हारे मन में भी न हो। यह महावीर का दर्शन है।-आ ५/६२-६७)
• अव्यक्त मुनि : अक्षिप्रत्यारोपण दृष्टांत
परिकम्मणाय खवगो, सेह बलामोडि सो वि तध ठाति । पाभातिय उवसग्गे, कतम्मि पारेति सो सेहो ॥ पारेहि तं पि भंते! देवयअच्छी चवेडपाडणया । काउस्सग्गाऽऽकंपण, एलगस्स सप्पदेसनिव्वत्ती ॥ (व्यभा ७९५, ७९६ ) एक क्षपक एकलविहार प्रतिमा के परिकर्म हेतु प्रतिमा में स्थित हो सूत्र - अर्थ का परावर्तन कर रहा था। एक शैक्ष मुनि भी गुरु आज्ञा की अवज्ञा कर हठपूर्वक उस क्षपक के पास ही प्रतिमा
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प्रतिमा
में स्थित हो गया। इसने आज्ञा का अतिक्रमण किया है- यह सोच देवता ने उपसर्ग किया - अर्धरात्रि में ही उसे प्रभात का आभास करा दिया। शैक्ष प्रतिमा सम्पन्न कर बोला- क्षपक! प्रभात हो गया है, प्रतिमा सम्पन्न करो। तब देवता ने उसके एक चपेटा मारा, दोनों आंखें बाहर आ गिरी। तपस्वी ने सघन कायोत्सर्ग किया। आकंपित हो देव ने पूछा- क्षपक ! कहो, मेरे लिए क्या आदेश है ? क्षपक ने कहा - शैक्ष की आंखें पूर्ववत् करो। देव ने कहा- अब इसकी आंखें आत्मप्रदेशों से शून्य हो गई हैं। क्षपक बोला- कैसे भी करो, यह कार्य तो करना ही है। देवता ने तत्काल मारित एडक की आंखें, जो आत्मप्रदेशों से युक्त थीं, लाकर उस मुनि के लगा दीं ।
• अशुभ संकल्पमात्र से प्रायश्चित्त
पत्थरमणसंकप्पे, मग्गण दिट्ठे य गहित खित्ते य । पडित परितावित मऍ, पच्छित्तं होति तिन्हं पि ॥ मासो लहुओ गुरुगो, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥
(व्यभा ८१७, ८१८) अकृतपरिकर्म मुनि आचार्य के निषेध करने पर भी प्रतिमा स्वीकार कर शून्यगृह में रहता है, रात्रि में मार्जार, श्वापद आदि से भयभीत हो उन पर प्रहार करने के लिए) प्रस्तर आदि ग्रहण करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है । अशुभ प्रवृत्ति
प्रायश्चित्त
प्रस्तरग्रहण का मानसिक संकल्प प्रस्तर की मार्गणा
ग्रहण बुद्धि से अवलोकन
प्रस्तर ग्रहण
श्वापद आदि पर प्रक्षेप
प्राणी पर प्रस्तर गिरना
लघु मास
गुरुमास
चतुर्लघु
चतुर्गुरु
षड्लघु
षड्गुरु
छेद
गाढ परिताप
प्राणी की मृत्यु
मूल
गणावच्छेदी का प्रायश्चित्त गुरुमास से प्रारंभ होकर अनवस्थाप्य में और आचार्य का प्रायश्चित्त चतुर्लघु से प्रारंभ होकर पारांचित में निष्ठित होता है।
बहुपुत्त पुरिसमेहे, उदयग्गी जड्डु सप्प चउलहुगा |......
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