________________
आगम विषय कोश-२
३८१
प्रतिमा
..."दव्वादि सुभे य पडिवत्ती॥ च, द्वितीये भरतादिप्रथम-पश्चिमतीर्थकरतीर्थेषु । एतच्च निरुवस्सग्गनिमित्तं, उस्सग्गं वंदिऊण आयरिए। प्रतिपद्यमानकानधिकृत्योक्तं । पूर्वप्रतिपन्नाः पुनः पञ्चानां आवस्सियं तु काउं, निरवेक्खो वच्चए भगवं॥ संयमानामन्यतमस्मिन् संयमे भवेयुः।। (व्यभा ८०३ वृ) वैराग्यं रागनिग्रहणमुपलक्षणमेतदद्वेषनिग्रहणम्।
मुनि प्रतिमा-प्रतिपत्ति के समय प्रथम चारित्र-सामायिक (व्यभा ७९१-७९३, ७९७,७९८ वृ) संयम अथवा द्वितीय चारित्र-छेदोपस्थापनीय संयम में वर्तमान शिष्य द्वारा अनुज्ञा मांगने पर आचार्य कहते हैं- यद्यपि
होता है। मध्यम बाईस तीर्थंकरों के तथा विदेह क्षेत्रवर्ती तीर्थंकरों परिकर्मित हो, फिर भी पुन: आपृच्छा की जाती है-तुम सत्परिकर्मा के ताथों में प्रथम सयम होता है । भरत-ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और हो या मन्दपरिका हो या अकृतपरिकर्मा हो? क्योंकि साधनाकाल
अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में द्वितीय संयम होता है। यह कथन में स्व-पर-उभय-समुत्थ परीषह उत्पन्न हो सकते हैं
प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से है। पूर्वप्रतिपन्न मनि पांचों चारित्रों में से ० आत्मसमुत्थ-क्षुधा, पिपासा, अलाभ, रोग, प्रज्ञा आदि परीषह।
किसी में भी हो सकते हैं। ० परसमुत्थ-शीत, उष्ण, दंशमशक आदि।
० प्रतिमा-साधना : पिंडैषणा, उपधि...... ० उभयसमुत्थ-नैषेधिकी, चर्या आदि। इन परीषहों के समुत्थित पग्गहियमलेवकडं, भत्त जहण्णेण नवविधो उवही। होने पर वैराग्य भावना- राग-द्वेष-निग्रह करना बहुत कठिन है। पाउरणवज्जियस्स उ, इयरस्स दसादि जा बारा॥
___ 'यह सम्यक् परिकर्मित है'--आपृच्छा से यह ज्ञात होने वसहीए निग्गमणं, हिंडंतो सव्वभंडमादाय। पर उसे गच्छविसर्जन की अनुज्ञा दी जाती है। तब वह प्रशस्त न य निक्खिवति जलादिसु, जत्थ से सूरो वयति अत्थं ॥ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में समग्र गच्छ के समक्ष एकलविहारप्रतिमा मणसा वि अणग्घाया, सच्चित्ते यावि कुणति उवदेसं। स्वीकार करता है। प्रतिमा-प्रतिपत्ति से पूर्व वह सम्पूर्ण गच्छ से अच्चित्तजोग्गगहणं, भत्तं पंथो य ततियाए। रत्नाधिक क्रम से क्षमायाचना करता है, फिर संघसमन्वित आचार्य
सप्तसु पिण्डैषणासु मध्ये उपरितनीनां चतसृणामन्यतके साथ निर्बाध प्रतिमा साधना के लिए कायोत्सर्ग करता है।
मस्याः पिण्डैषणाया अभिग्रहः । आद्यानां तिसृणां पिण्डैषणानां तत्पश्चात आचार्य को वन्दन और आवश्यकी का उच्चारण कर
प्रतिषेधः । एतच्च चूर्णिकारोपदेशात्"। (व्यभा ८०४-८०६ वृ) गच्छगुफा से सिंह की भांति निरपेक्ष हो निष्क्रमण करता है।
० भिक्षाचर्या-वह मुनि सात पिण्डैषणाओं में से अंतिम चार में से एमेव गणायरिए, गणनिक्खिवणम्मि नवरि नाणत्तं ।
किसी एक से अलेपकृत आहार और पानक ग्रहण करता है। प्रथम पुव्वोवहिस्स अहवा, निक्खिवणमपुव्वगहणं तु॥
तीन पिण्डैषणाएं उसके लिए प्रतिषिद्ध हैं-यह चूर्णिकार की (व्यभा ८०७)
व्याख्या है। (सात पिण्डैषणा द्र पिण्डैषणा) प्रतिमाप्रतिपत्ति में भिक्षु की जो विधि प्रतिपादित है, वही . उपधि-वह जघन्यतः नवविध उपधि रखता है-पात्र, पात्रबंध, विधि आचार्य आदि के लिए है। विशेष यह है-गणावच्छेदी पात्रस्थापना, पात्रकेसरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, मुखवस्त्रिका गणावच्छेदित्व से मुक्त होकर तथा आचार्य अन्य को आचार्य और रजोहरण। जिसके प्रावरण-परिहार का स्थापित कर एकलविहारप्रतिमा स्वीकार करे।
वह दस (दसवां एक सूती कल्प), ग्यारह (दो सूती कम्बल) ___ अथवा गणावच्छेदी और आचार्य पूर्वगृहीत उपधि का निक्षेप और बारह (तीन सूती कम्बल) उपधि भी रख सकता है। कर अन्य प्रायोग्य उपधि का उत्पादन कर प्रतिमा स्वीकार करे। . उपकरणनिक्षेप-अपनी वसति (उपाश्रय) से बाहर जाता है, तब ० एकलविहारप्रतिमा और चारित्र
सर्व भण्डोपकरण साथ में लेकर घूमता है, वसति में नहीं छोड़ता। .."संजम पढमे व बितिए वा॥ ० विहरण करते हुए यदि सूर्यास्त हो जाए तो वह जल में (खुले
प्रथमे संयमे मध्यम-तीर्थकरतीर्थेषु विदेहतीर्थकरतीर्थेषु आकाश में-द्र भिक्षुप्रतिमा), स्थल में या जहां भी है, वहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org