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पिण्डैषणा
१४. भिक्षागमन - विधि से भिक्खू सव्वं भंडगमायाए गाहावइ-कुलं पिंडवायपडियाए पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा ॥
''गाहावइकुलस्स दुवार - बाहं कंटक - बोंदियाए परिपिहियं पेहाए, तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जियो अगुणिज्ज ॥ (आचूला १/३७, ५४)
भिक्षु सब उपकरणों को साथ लेकर भिक्षा की प्रतिज्ञा से गृहपति- कुल में प्रवेश और निष्क्रमण करे। गृहपतिकुल के द्वारभाग को कंटकशाखा से ढका हुआ देखकर गृहस्थों से अवग्रह की आज्ञा लिए बिना, प्रतिलेखन और प्रमार्जन किए बिना द्वार को न खोले । १५. गमनमार्ग, अवस्थान और याचनाविधि
......रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे सण्णिवइए पेहाए, तं जहा - कुक्कुडजाइयं वा, सूयरजाइयं वा, अग्गपिंडंसि वा वायसा संथडा सण्णिवइया पेहाए - सइ परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, नो उज्जुयं गच्छेज्जा ॥
भोगाव - कुलस्स दुवार- साहं अवलंबियअवलंबियगाहावइ - कुलस्स दगच्छड्डणमत्ताए चंदणिउयए " सिणाणस्स वा, वच्चस्स वा, संलोए सपडिदुवारे चिट्टेज्जा । णो गाहावइ - कुलस्स आलोयं वा थिग्गलं वा, संधिं वा, दगभवणं वा बहाओ परिझिय-पगिज्झिय, अंगुलियाए वा उद्दिसियउद्दिसय, ओणमिय- ओणमिय, उण्णमिय- उण्णमिय णिज्झाएज्जा | णो गाहावई अंगुलियाए उद्दिसिय- उद्दिसिय" चालियचालितज्जि - जिय" उक्खलुंपिय-उक्खलुंपिय वंदियवंदिय जाएजा | णो व णं फरुसं वएज्जा ॥ (आचूला १ / ६१, ६२ )
मार्ग में रस की एषणा करने वाले बहुत से प्राणियों को ग्रास की एषणा (भोजन) के लिए सघनता से एकत्रित देखे, जैसे - कुक्कुटजाति, शूकरजाति, अग्रपिण्ड के लिए कौए एकत्रित बैठे हुए देखकर, दूसरा मार्ग होने पर संयमपूर्वक उस मार्ग से जाए, सीधे मार्ग से न जाए।
गृहपति के घर के द्वारभाग का सहारा लेकर खड़ा न हो, गृह की नाली और आचमन-स्थान के पास तथा स्नानगृह और वर्चोगृह के सामने खड़ा न हो, जहां से गृहस्थ दीखता हो ।
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आगम विषय कोश- २
गृहपति- गृह के गवाक्ष, थिग्गल, संधि और जलगृह की ओर भुजाओं को बार-बार फैलाकर, अंगुलि से निर्देशकर, पुनः पुनः झुककर अथवा ऊंचा होकर उन स्थानों को न देखे | गृहपति को अंगुलि से निर्देश कर, चालित कर, तर्जित कर, शरीर को खुजला कर, स्तुति कर याचना न करे। (न देने पर) कठोर वचन न बोले । १६. पूर्व-पश्चात् - संस्तुत: भिक्षाकाल में भिक्षा
“भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा, पच्छासंथुया वा परिवसंति" तहप्पगाराई कुलाई णो पुव्वामेव भत्ताए वा, पाणाए वा णिक्खमेज्ज वा, पविसेज्ज वा ॥ पुरा पेहाए तस्स परो अट्ठाए असणं "उवकरेज्ज वा, उवक्खडेज्ज वा । एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अणावायमसंलोए चिट्टेज्जा। से तत्थ काले अणुपविसेज्जा, अणुपविसेत्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं, एसियं, वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारेज्जा ।" ( आचूला १ / १२२, १२३ )
भिक्षु के पूर्वसंस्तुत (माता, पिता आदि) अथवा पश्चात्संस्तुत ( श्वसुर आदि ग्राम आदि में ) रहते हैं । उनके घरों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार- पानी के लिए न जाए, न प्रवेश करे।
गृहस्थ भिक्षु को अपने सामने समागत देखकर उसके लिए अशन आदि तैयार कर सकता है, उपस्कृत कर सकता है। (इसलिए वह वहां सामने खड़ा न रहे,) एकांत में चला जाए, एकांत में जाकर नापात और असंलोक स्थान में खड़ा रहे। भिक्षाकाल होने पर ग्राम में प्रवेश कर इतर इतर कुलों में सामुदानिक, एषणीय और शिक (केवल साधुवेश से लब्ध) भिक्षा को प्राप्त कर आहार करे । १७. अगर्हित कुलों से भिक्षा
"कुलेसु अदुगुछिए अगरहिएसु असणं फासूयं एसणिज्जं तिमण्णमाणे पडिगाहेज्जा ॥ ( आचूला १/२३) भिक्षु अजुगुप्सित और अगर्हित कुलों में अशन आदि को प्रासुक और कल्पनीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण करे। १८. दानफल बताकर लेना निषिद्ध : सप्तविध दानविधि जे भिक्खू लव- गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि २/३०) दाणफलं लवितूणं, लावावेतु गिहिअण्णतित्थीहिं । जो पादं उप्पाए, लव-गविट्टं तु तं होति ॥
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