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आगम विषय कोश-२
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पिण्डैषणा
ओसक्कण अहिसक्कण, अज्झोयरए तहेव णेक्कंती। वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं॥ अण्णत्थ भोयणम्मि य, कीते पामिच्चकम्मे य॥
(क ४/१२, १३) (निभा ९९९, १००४-१००६)
निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी प्रथम पौरुषी में गृहीत अशन, पान, जो भिक्षु नित्य अग्रपिण्ड-प्रधानपिण्ड या प्रथम दिया खाद्य तथा स्वाद्य को चतुर्थ पौरुषी में नहीं रख सकते । कदाचित् जाने वाला पिण्ड खाता है, खाते हुए दूसरे का अनुमोदन करता है, रह जाए तो उसे न स्वयं खाए, न दूसरों को खाने के लिए दे। वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
वे अशन आदि को दो कोस की सीमा से आगे नहीं ले जा गृहस्थ नित्य अग्रपिण्ड ग्रहण के लिए साधु को निमंत्रित सकते। कदाचित् ले जाए तो न स्वयं खाए, न औरों को दे। करता है। साध निमंत्रण स्वीकार करता हआ कहता है-घर जाने . एकांत में बहुप्रासुक स्थण्डिल का प्रतिलेखन-प्रमार्जन कर पर तुम दोगे या नहीं दोगे-इस रूप में उसे उत्पीड़ित करता है उस (गृहीत या आनीत आहार) का परिष्ठापन करे। उसे स्वयं खाने और कितना दोगे? इस रूप में वस्तु का परिमाण निर्धारित वाला या दूसरों को देने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। करवाता है, इस प्रकार निमंत्रण, उत्पीड़न और परिमाणकरण-ये
कालातिक्रांत : जिनकल्पी-स्थविरकल्पी तीनों भंग कल्पनीय नहीं हैं। जो स्वाभाविक है-गृहस्थ के अपने चिया उसमणा संचयी गिढ़ी त होति धारेता...... लिए कृत है, अनिमंत्रित, अनुत्पीड़ित, अपरिमाणकृत और
तम्हा उ जहिं गहियं, तहि भुंजणे वज्जिया भवे दोसा।.... सामुदानिक है, वह साधु के लिए प्रतिदिन कल्पनीय है।
एवं ता जिणकप्पे, गच्छम्मि चउत्थियाए जे दोसा।.... यद्यपि निमंत्रित भिक्षा गृहस्थ के लिए निष्पन्न है, फिर भी
मोक्खपसाहणहेडं, णाणादी तप्पसाहणे देहो। वह स्थापित आदि उद्गमदोषों से युक्त है-'मैं अवश्य दूंगा'
देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो॥ यह सोचकर गृहस्थ अलग पात्र में उसे स्थापित करता है, अत:
काले उ अणुण्णाते, जइ वि हु लग्गेज्ज तेहि दोसेहिं । वह वर्जनीय है।
सुद्धो उवातिणितो, लग्गति उ विवज्जए परेणं । गृहस्थ अवश्य दातव्य आहार में से साधु को पूरा न पकने पर भी उसमें से निकाल कर देता है, विवक्षित काल से पहले-पीछे
(निभा ४१४४, ४१४७, ४१४८, ४१५९, ४१६०)
श्रमण संचय नहीं करते। संचय करने वाले श्रमण गृहस्थ पकाता है, पच्यमान वस्तु में साधु के निमित्त अधिक डाल देता है। अन्यत्र निमंत्रित होने पर भी 'मैं अमुक वस्तु अवश्य दूंगा'-यह
की तरह हो जाते हैं। इसलिए जिस प्रहर में आहार ग्रहण किया,
उसी प्रहर में खाने से संचय आदि दोष स्वतः परिहत हो जाते हैंसाधु के लिए खरीदकर या उधार लाकर देता है अथवा
यह जिनकल्पी साधु का आचार है। स्थविरकल्पी प्रथम प्रहर में आधाकर्म आहार निष्पन्न करता है-यह सब कल्पनीय नहीं है।
ग्रहण कर चतुर्थ प्रहर में रखते हैं या खाते हैं तो संचय आदि सब १३. कालातिक्रांत-क्षेत्रातिक्रांत आहार-निषेध
दोष संभव हैं। (जो निग्रंथ अभिलषणीय और एषणीय अशन नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं आदि का प्रथम प्रहर में प्रतिग्रहण कर अंतिम प्रहर आने पर आहार वा खाइमं वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता करता है, यह कालातिक्रांत आहार है।-द्र भ ७/३४) पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्तए। से य आहच्च उवाइणाविए ज्ञान. दर्शन और चारित्र मोक्षप्रसाधन के हेत हैं। ज्ञान आदि सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा नो अण्णेसिं अणुप्पदेज्जा॥ की साधना के लिए शरीर अपेक्षित है। शरीर-धारण के लिए आहार
नो कप्पइ असणं वा "अद्धजोयणमेराए उवाइणा- आवश्यक है, अत: आहार के ग्रहण-धारण का काल अनुज्ञात हैवेत्तए।से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा दिन के प्रथम तीन प्रहर या अंतिम तीन प्रहर। अनुज्ञात काल में संचय नोअण्णेसिं अणुप्पदेज्जा, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता आदि दोष लगते हों, तब भी शुद्ध है । अनुज्ञात-काल का अतिक्रमण पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया। तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं करने पर कोई दोष न भी लगे, तब भी प्रायश्चित्त आता है।
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