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आगम विषय कोश- २
जाने पर भी लेता है, खाता है, वह प्रव्रजित होने पर भी भोजन के निमित्त गृहस्थ 'जैसा आचरण करता है । - सू १ / २ / ६० ) ० स्थापित और रचित दोष
स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितम् । रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादौ मध्ये भक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्थाप्यन्ते ।
(व्यभा १५२० की वृ) १. स्थापित - जो आहार साधु के उद्देश्य से स्वस्थान या परस्थान में स्थापित है।
२. रचित - साधु के निमित्त कांस्यपात्र आदि के मध्य में आहार रखकर उसके पार्श्व भागों में नाना प्रकार के व्यंजन स्थापित किए जाते हैं। ये दोनों उद्गम के दोष हैं।
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* उद्गम - उत्पादन आदि दोष द्र श्रीआको १ एषणासमिति ८. उत्पादन के दोष : धात्रीपिंड अंतर्धानपिंड
जे भिक्खू धाइपिंडं दूतिपिंडं णिमित्तपिंड...... आजीवियपिंडं वणीमगपिंडं तिगिच्छा पिंडं कोहपिंडं ......माणपिंडं...मायापिंडं लोभपिंडं विज्जापिंडं मंतपिंडं जोगपिंडं चुणपिंड अंतद्धाणपिंडं भुंजति चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि १३/६१-७५)
उत्पादन - दोष के पन्द्रह प्रकार हैं१. धात्रीपिंड
६. चिकित्सापिंड
२. दूतीपिंड ३. निमित्तपिंड
७. क्रोधपिंड
८. मानपिंड
४. आजीवपिंड ५. वनीपकपिंड
९. मायापिंड १०. लोभपिंड
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११. विद्यापिंड
१२. मंत्रपिंड
१३. योगपिंड
१४. चूर्णपिंड १५. अंतर्धानपिंड
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इनका भोग करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। (पिंडनिर्युक्ति में उत्पादन के सोलह दोष निरूपित हैं, जिनमें ग्यारहवां संस्तव और सोलहवां मूलकर्म है। वहां अंतर्धानपिंड का उल्लेख नहीं है। चूर्णपिंड में इसका समावेश किया जा सकता है । नि २ / ३७ में पूर्व - पश्चात् संस्तव दोष का उल्लेख है ।) ९. पूर्वसंस्तव पश्चात्संस्तव - निषेध
जे भिक्खू पुरेसंथवं वा पच्छासंथवं वा करेति --''॥'''' मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि २/३७, ५६ )
पिण्डैषणा
गुणसंथवेण पुव्विं, संतासंतेण जो थुणेज्जाहि । दातारमदिण्णम्मी, सो पुव्वो संथवो होति ॥ गुणसंथवेण पच्छा, संतासंतेण जो थुणिज्जाहि । दातारं दिण्णम्मी, सो पच्छासंथवो होति ॥ ( निभा १०४६, १०४८ )
जो भिक्षु गृहपति के भिक्षादान से पहले और भिक्षादान के पश्चात् उसमें विद्यमान-अविद्यमान गुणों की स्तुति करता है - इस पूर्वसंस्तव तथा पश्चात्संस्तव के कारण वह मासलघु प्रायश्चित्त का भागी होता है ।
१०. एषणा का एक दोष : शंकित
भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा एसणिज्जे सिया, अणेसणिज्जे सिया - विचिगिच्छसमावण्णेणं अप्पाणेणं असमाहडाए लेस्साए, तहप्पगारं असणं णो पडिगाहेज्जा ॥ (आचूला १/३६) भिक्षु अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य एषणीय है या अनेषणीय - इस विचिकित्सासमापन्न चित्त से, अविशुद्ध लेश्या से वैसे अशन आदि को न ले ।
११. पुराकर्मकृत दोष
.........परो हत्थं वा, मत्तं वा, दव्वि वा, भायणं वा सीओदगवियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेत्ता पहोइत्ता आहट्टु दलएज्जा - तहप्पगारेण पुरेकम्मकरण हत्थे वा मत्तेण वा दव्वी वा भायणेण वा असणं वा अफासुर्य अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा ।।
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(आचूला १/६३)
गृहस्थ हाथ, पात्र, कड़छी या भाजन को शीतोदक या उष्णोदक से धोकर, बार-बार धोकर, ( उससे आहार आदि) लाकर दे - वैसा पुराकर्मकृत हाथ, पात्र, कड़छी या भाजन से दिया जाने वाला अशन आदि अप्रासुक और अनेषणीय है - ऐसा मानता हुआ प्राप्त होने पर भी उसे न ले।
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संसृष्ट के अठारह प्रकार : पुराकर्म आदि
....ससरक्खादी गणो "पुरेकम्मे, पच्छाकम्मे, उदउल्ले, ससिणिद्धे, ससरक्खे, मट्टिआ-ऊसे, हरियाले, हिंगुलए,
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