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आगम विषय कोश-२
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दीक्षा
ताहे वंदति, वंदित्ता णमोक्कारमुच्चारतो पयाहिणं वंदना कर, प्रत्युत्थित हो कहता है-भंते! आपने मुझे सामायिक करेति, पादेसु णिवडति। एवं बितियं ततियं च वारा। ताहे में आरोहण करवाया, अब मैं आपकी अनुशिष्टि चाहता हूं। साधूण णिवेदाविज्जति"ते भणंति-"नित्थारगपारगो गुरु कहते हैं-'स्व-पर का कल्याण करो, श्रुत के होहि, आयरियगुणेसु वट्टसु"एसा मुंडावणा। पारगामी बनो और गुरु-गुणों में वर्तन करो।'
(निभा ३७४८-३७५१ चू) इस अनुशासन को सुन शैक्ष पुनः वंदना कर नमस्कार ० प्रव्राजना-दीक्षार्थी से गुरु पूछते हैं-तुम कौन हो? क्यों का उच्चारण कर तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक चरण-वंदना करता प्रव्रजित हो रहे हो? वैराग्य कैसे हुआ?
है और फिर सब साधुओं को अनुशिष्टि के लिए निवेदन ___ पृच्छा में उत्तीर्ण होने पर वह प्रव्राजनीय है। प्रव्रज्या करता है, तब साधु कहते हैंसे पूर्व उसे साधुचर्या से अवगत कराया जाता है
निस्तारक और पारगामी बनो, आचार्य के अनुशासन साधु जीवन में प्रतिदिन भिक्षा के लिए घूमना होता में वर्तन करो-यह मुंडापना है। है। प्रासुक-एषणीय आहार आदि प्राप्त होने पर स्थान पर (भगवान् पावं के शासन में केवल सामायिक चारित्र आकर बाल, वृद्ध, शैक्ष आदि के साथ उसे संविभागपूर्वक था और भगवान महावीर के शासन में सामायिक चारित्र तथा खाना होता है। मुनि सदा स्वाध्याय-सद्ध्यान में रत रहता है। छेदोपस्थापनीय चारित्र दोनों थे। दीक्षा सामायिक चारित्र के वह कभी स्नान नहीं करता। ऋतुबद्धकाल में भूमि पर तथा संकल्प के साथ दी जाती और एक सप्ताह, चार मास अथवा वर्षाकाल में फलक आदि पर सोता है। वह अठारह हजार छह मास के पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकृत किया शीलांग को धारण करता है। उसे केशलंचन आदि अनेक कष्ट जाता था। सामायिक चारित्र में केवल सर्व सावधयोग का सहने होते हैं यह सब स्वीकार करने पर उसे प्रव्रजित किया प्रत्याख्यान होता था। भगवान महावीर ने दीक्षा के समय “सव्वं जा सकता है। दीक्षार्थी की यह परीक्षा प्रव्राजना कहलाती है। मे अकरणिज्जं पावकम्म"-इस संकल्प के साथ सामायिक • मुंडापना-जो स्थिरहस्त समर्थ आचार्य होते हैं, वे प्रव्रजित चारित्र स्वीकार किया था।छेदोपस्थापनीय चारित्र में सावद्ययोग शैक्ष का जघन्यतः तीन मुष्टि से सारा लोच करते हैं। का प्रत्याख्यान विस्तार के साथ किया जाता था। विस्तार की दो
गुरु अप्रशस्त द्रव्य आदि का वर्जन कर प्रशस्त द्रव्य- परम्पराएं प्रस्तुत (भगवती) सूत्र में विद्यमान हैंक्षेत्र-काल-भाव में प्रव्रजित करते हैं। प्रशस्त लग्न आदि में १. पांच महाव्रतों का स्वीकार।। शीघ्र प्रव्रजित करते हैं। केवल गुरु के अनुकूल लग्न आदि में २. अठारह प्रकार की सावध प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान। भी प्रव्रजित किया जा सकता है।
इन दोनों में पहले कौन-सी परम्परा प्रचलित हुईगुरु शैक्ष को यथाजात-निषद्यासहित रजोहरण, मुख- यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। संभावना की जा सकती वस्त्र और चोलपट्ट देते हैं।
है कि पहले अठारह प्रकार की सावध प्रवृत्तियों के प्रत्याख्यान गुरु अपने बायीं ओर स्थित शैक्ष के लिए कहते हैं
की परम्परा रही हो और उसके पश्चात् उसका संक्षिप्त रूप मैं इस साध को सामायिक में आरोहण कराने के लिए कायोत्सर्ग पांच महाव्रतों के रूप में हुआ हो। सूत्र संकलन के काल में करता हूं-'अन्नत्थ ऊससिएणं वोसिरामि'-कायोत्सर्गसूत्र के
दोनों परम्पराओं का एक साथ उल्लेख हआ है-यह संभावना इतने अंश का उच्चारण कर लोगस्स...' का ध्यान कर, नम- की जा सकती है।-भ २/६८ का भाष्य) स्कारमंत्र से उसको पूरा कर पुनः 'लोगस्स..' (उक्कित्तणं) ५. प्रव्रज्या के पश्चात् उपस्थापना का उच्चारण कर प्रव्राजनीय के साथ तीन बार 'सामायिक' फासुयआहारो से, अणहिंडंतो य गाहए सिक्खं। पाठ बोलते हैं।
ताहे उ उवट्ठावण, छज्जीवणियं तु पत्तस्स॥ तत्पश्चात् शैक्ष 'इच्छामि खमासमणो!.....' पाठ से दव्वादिपसत्थवया, एक्केक्क तिगंतु उवरिमं हेट्ठा।"
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