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आगम विषय कोश-२
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पर्युषणाकल्प
जतणाए समणाणं, अणुण्णवेत्ता वसंति खेत्तबहिं। प्राप्त-वर्षावासप्रायोग्य क्षेत्र और आषाढपूर्णिमा तिथि-इस क्षेत्र वासावासट्ठाणं, आसाढे सुद्धदसमीए॥ और कालविभाग में प्राप्त वस्त्रग्रहण नहीं कर सकते। वे द्वितीय
(व्यभा ३९०१, ३९२३) समवसरण (ऋतुबद्धकाल) में वस्त्र ग्रहण कर सकते हैं। ज्येष्ठामूल मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को क्षेत्रों की ४. प्रथमप्रावृट् और वर्षावास में विहार-निषेध अनुज्ञापना होती है। श्रावक आदि को यतनापूर्वक अनुज्ञापित कर जे भिक्खू पढमपाउसंसि गामाणुगाम दूइज्जति ॥ मुनि क्षेत्र के बाहर रहे और आषाढ़ शुक्ला दशमी को वर्षावास- .....वासावासंसि पज्जोसवियंसि दूइज्जति...॥ स्थान में प्रवेश करे।
पाउसो आसाढो सावणो य दो मासा। तत्थ आसाढो ० शय्या-ग्रहण-प्रतिलेखन
पढम पाउसो भण्णति। अहवा छण्हं उतूणं जेण पढमपाउसो वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड़तओ उवस्सया
वणिजति तेण पढमपाउसो भण्णति। (नि १०/३४, ३५ चू) गिण्हित्तए, वेउव्विया पडिलेहा साइज्जिया पमज्जणा॥
वह भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है, विउव्विया पडिलेहा-पुणो पुणो पडिलेहिज्जति ० जो प्रथम प्रावृट्-आषाढ़ में ग्रामानुग्राम विहार करता है। संसत्ते, असंसत्ते तिन्नि वेलाउ पव्वण्हे भिक्खं गतेस वेतालियं, जो वर्षावास में पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास कर विहार करता है। जे अन्ने दो उवस्सयादिणे दिणे निहालिज्जति"ततिए दिवसे आषाढ़ और श्रावण-ये दो मास प्रावृट् कहलाते हैं। इनमें पादपुंछणेण पमज्जिज्जति। (दशा ८ परि सू २८४ चू) आषाढ़ प्रथम प्रावृट् है । अथवा छह ऋतुओं में प्रावृट् ऋतु का वर्णन ___ वर्षावास में स्थित निग्रंथ और निपॅथी तीन उपाश्रय ग्रहण
प्रथम होने से यह प्रथम प्रावृट् है।
(१. प्रथम प्रावृट् में विहार नहीं करना चाहिए। कर सकते हैं। वे उपयोग में आने वाले, जीवों से संसक्त उपाश्रय
२. वर्षावास में पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास करने पर विहार नहीं की बार-बार तथा असंसक्त उपाश्रय की दिन में तीन बार
करना चाहिए। यहां दो सूत्रों में बताया गया है कि प्रथम प्रावृट् में पूर्वाह्न, भिक्षाकाल में और सायंकाल प्रतिलेखना करते हैं। अन्य दो
और वर्षावास में पर्युषणाकल्प के द्वारा निवास करने पर विहार न उपाश्रयों की प्रतिदिन प्रतिलेखना और तीसरे दिन पादपोंछन से
किया जाए। प्रथम प्रावृट् में विहार न किया जाए-अर्थात् आषाढ़ प्रमार्जना करते हैं।
में विहार न किया जाये। प्रावृट् का अर्थ यदि चातुर्मास प्रमाण० वस्त्र-ग्रहण-निषेध
वर्षाकाल किया जाये तो प्रथम प्रावृट् में विहार के निषेध का अर्थ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसर- यह करना होगा कि पर्युषणाकल्प से पूर्ववर्ती पचास दिनों में णुद्देस-पत्ताई चेलाइं पडिग्गाहित्तए॥
विहार न किया जाए। पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास करने के बाद कप्पइदोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए॥ विहार न किया जाए- इसका अर्थ है कि भाद्रशुक्ला पंचमी से
प्रथमसमवसरणे-वर्षाकाले उद्देश:-क्षेत्रकाल- कार्तिक तक विहार न किया जाए। इन दोनों सूत्रों का संयुक्त अर्थ विभागस्तं प्राप्तानि “वर्षावासप्रायोग्यं क्षेत्रं प्राप्ताः आषाढपूर्णिमा यह है कि चातुर्मास में विहार न किया जाए। मुनि पर्युषणाकल्पपूर्वक च सजाता तत इयन्तं क्षेत्र-कालविभागं प्राप्तानि वस्त्राणि न निवास करने के बाद साधारणतः विहार कर ही नहीं सकते। किन्तु कल्पन्ते।
(क ३/१६, १७ वृ) पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में विहार कर भी आसाढपुण्णिमाए, ठिया उ दोहिं पि होंति पत्ता उ। सकते हैं।-स्था ५/९९, १०० टिप्पण) तत्थेव य पडिसिज्झइ, गहणं .........॥ अब्भुवगए खलु वासावासे अभिपवुढे, बहवे पाणा
___(बृभा ४२४८) अभिसंभूया, बहवे बीया अहुणुब्भिन्ना, अंतरा से मग्गा निग्रंथ और निपॅथी प्रथम समवसरण-वर्षाकाल में उद्देश बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंग
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