________________
आगम विषय कोश- २
संवत्सरी शब्द का प्रयोग हो रहा है। पर्युषणा शब्द का प्रयोग संवत्सरी के सहायक दिनों के लिए होता है। पर्युषणा का मूल रूप संवत्सरी के नाम से प्रचलित हो गया। प्राचीन काल में पर्युषणा का एक ही दिन था। वर्तमान में अष्टाह्निक पर्युषणा मनाई जाती है। संवत्सरी का पर्व आठवें दिन मनाया जाता है।
दिगम्बर परम्परा में संवत्सरी जैसा कोई शब्द उपलब्ध नहीं है। उनकी परम्परा में दस लक्षण पर्व मनाया जाता है। सामान्य विधि के अनुसार उसका प्रथम दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी का दिन होता है। श्वेताम्बर परम्परा में पंचमी से पहले सात दिन जोड़े गए। हैं और दिगम्बर परम्परा में नौ दिन उसके बाद जोड़े गए हैं। मूल दिन (पंचमी) में कोई अन्तर नहीं है।
१. दो श्रावण मास
२. दो भाद्रपद मास
संवत्सरी के सम्बन्ध में मुख्य समस्याएं चार हैं३. चतुर्थी और पंचमी ४. उदिया तिथि, घड़िया तिथि जैन ज्योतिष के अनुसार वर्षा ऋतु में अधिक मास नहीं होता । इस दृष्टि से दो श्रावण मास और दो भाद्रपद मास की समस्या ही पैदा नहीं होती। लौकिक ज्योतिष के अनुसार वर्षा ऋतु में अधिक मास हो सकता है। दो श्रावण मास या दो भाद्रपद मास होने पर पर्वाराधना की विधि इस प्रकार है- कृष्णपक्ष के पर्व की आराधना प्रथम मास के कृष्ण पक्ष में और शुक्लपक्ष के पर्व की आराधना अधिमास के शुक्ल पक्ष में। समस्या अधिक मास की- जैन संप्रदायों में कुछ सम्प्रदाय दो श्रावण होने पर दूसरे श्रावण में पर्युषणा की आराधना करते हैं । भाद्रपद मास दोहों तो प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा की आराधना करते हैं। ऐसा करने वालों का तर्क यह है कि संवत्सरी की आराधना पचासवें दिन करनी चाहिए। इस तर्क में सिद्धांत का एक पहलू ठीक है। किन्तु उसका दूसरा पहलू, ७० दिन शेष रहने चाहिए, विघटित हो जाता है। संपूर्ण नियम पहले ५० दिन और बाद में ७० दिन- दोनों पक्षों से सम्बन्धित है।
1
जो पचासवें दिन को प्रमाण मानकर संवत्सरी करते हैं, उनके शेष में ७० दिनों का प्रमाण भी रहना चाहिए। इसी प्रकार ७० दिन शेष रहने की बात पर दो श्रावण होने पर भाद्रपद में और दो भाद्रपद होने पर दूसरे भाद्रपद में संवत्सरी करने की स्थिति में संवत्सरी से पहले ५० दिन की व्यवस्था विघटित हो जाती है। इसका सीधा-सा समाधान है अधिक मास को मलमास या लूनमास
Jain Education International
पर्युषणाकल्प
मानकर संख्यांकित नहीं करना। ऐसा होने से ५० और ७० दोनों की व्यवस्था बैठ सकती है।
वर्तमान में सभी जैन लौकिक पंचांग को आधार मानकर चल रहे हैं। इस दृष्टि से लौकिक ज्योतिष की धारणा को मान्य करके ही पर्व की आराधना करना उचित है। एक ओर आगमोक्त ५० और ७० दिनों का आग्रह, दूसरी ओर लौकिक ज्योतिष का आधार - ये दोनों बातें एक साथ संगत नहीं हो सकतीं। यदि ५० और ७० दिनों का आग्रह हो तो चातुर्मास में मास - वृद्धि अस्वीकार कर देनी चाहिए। यदि चातुर्मास में मास - वृद्धि की बात स्वीकार की जाती है तो लौकिक ज्योतिष के अनुसार पर्वाराधना की दृष्टि से पन्द्रह दिन (कृष्ण पक्ष ) प्रथम मास में, पन्द्रह दिन (शुक्ल पक्ष ) अधिमास में मान्य होते हैं। इस धारणा के आधार पर दो भाद्रपद मास होने की स्थिति में संवत्सरी पर्व की आराधना द्वितीय भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में होनी चाहिए। – युवाचार्य महाप्रज्ञ ( आचार्य महाप्रज्ञ) द्वारा लिखित लेख - आवश्यक है संवत्सरी की समस्या का समाधान - जैनभारती, अगस्त १९९३) १०. पर्युषण तप की अनिवार्यता
३४९
भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पाहारं आहारेति, आहारेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि १०/३९) ...... तय भूइ - बिंदुमादी, सो पावति आणमादीणि ॥ उत्तरकरणं एगग्गया य आलोयचेइवंदणया । मंगलधम्मका वि य, पव्वेसुं तवगुणा होंति ॥ अट्टम छट्ठ चउत्थं, संवच्छर-चाउमास पक्खे य । पोसहियतवे भणिए, बितियं असहू गिलाणे य ॥
इत्तरियं णाम थोवं एगसित्थमवितये त्ति तिलतुसतिभागमेत्तं । भूतिरिति यत् प्रमाणमंगुष्ठ-प्रदेशनीसंदंसकेन भस्म गृह्यते, पानके बिंदुमात्रमपि । (निभा ३२१५-३२१७ चू)
जो भिक्षु पर्युषण के दिन एक सिक्थ या तिलतुषत्रिभागमात्र या चिमटीमात्र भस्म जितना आहार करता है, बिंदुमात्र पानक लेता है, वह चतुर्गुरु दण्ड और आज्ञाभंग आदि दोषों को प्राप्त होता है।
पर्युषण - तप से उत्तरगुण की अनुपालना और एकाग्रता की वृद्धि होती है । वर्षाकाल का आदि मंगल होता है । उस दिन वार्षिक आलोचना, अर्हत् वंदन और धर्मकथा करणीय है।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org