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पारांचित
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आगम विषय कोश-२
किसी प्रमादवश आचार्य उसकी उपेक्षा करते हैं, तो वे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। भिक्षु स्वस्थ होने पर पुनः सब कार्य स्वयं करता हैं।
आचार्य अपने शिष्यों और प्रतीच्छकों को सूत्र-अर्थ संबंधी पृच्छा-प्रतिपृच्छा देकर उस प्रायश्चित्त वाहक के पास जाते हैं, उसके शरीर की वर्तमान स्थिति के बारे में पूछते हैं। यदि वह तप से क्लांत होता है तो आचार्य उसे आश्वस्त कर उसी क्षेत्र में आ जाते हैं, जहां गच्छ है।
आचार्य स्वयं ग्लान हो गये हों या तत्काल रोगमुक्त हुए हों, ज्येष्ठ-आषाढ का समय हो अथवा किसी अन्य कार्य से व्याघात उत्पन्न हो गया हो, तो वे उपाध्याय को या वहां जाने योग्य गीतार्थ को भेजते हैं। गीतार्थ के वहां जाने पर भिक्ष कछ पछे या न पछे. तब भी गीतार्थ उसे बता दे कि अमक प्रयोजन से आचार्य नहीं आये हैं। १७. अनवस्थाप्य और पारांचित में भिन्नता
वूढे पायच्छित्ते , ठविजई जेण तेण नव होति। जं वसइ खित्तबाहिं, चरिमं तम्हा दस हवंति॥
.."तदेव परिहारतपःप्रायश्चित्तं वहमानः सन्नेकाकी सक्रोशयोजनप्रमाणक्षेत्राद् बहिर्वसति तदेतावतांशेनानवस्थ्याप्यात् चरमं पाराञ्चितं विभिन्नम्। (बृभा ७१२ वृ)
गण में रहते हुए बारह वर्ष पर्यंत परिहारतप प्रायश्चित्त वहन करने के पश्चात् अनवस्थाप्य मुनि को व्रतों में उपस्थापित किया जाता
नाता है, अतः मूल प्रायश्चित्त से अनवस्थाप्य भिन्न है। अनवस्थाप्य के प्रक्षेप से प्रायश्चित्त के नौ भेद होते हैं। पारांचित में परिहारतप प्रायश्चित्त को वहन करता हुआ मुनि सक्रोश योजन प्रमाण क्षेत्र से बाहर अकेला रहता है। इस दृष्टि से अनवस्थाप्य से पारांचित भिन्न होने से प्रायश्चित्त के दस भेद होते हैं। * परिहारतपवहन विधि
द्र परिहारतप १८. अनवस्थाप्य-पारांचित गृहीभूत
अणवठ्ठप्पंभिक्खुंअगिहिभूयं नो कप्पइ "गिहिभूयं कप्पइ ॥ पारंचियं भिक्खुं अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥"गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए॥ (व्य २/१८-२१)
अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त वाहक भिक्ष को गृहस्थ वेश धारण कराये बिना गणावच्छेदक उसे पुनः संयम में उपस्थापित नहीं कर सकता। उसके गृहीभूत होने पर (गृहस्थ वेश धारण करने पर) गणावच्छेदक उसे उपस्थापित कर सकता है।
स च बहिर्यावत्तिष्ठति तावन्न गहस्थः क्रियते किन्त्वागत:.....।
(व्यभा १२१० की वृ) वह जब तक बाहर रहता है, तब तक उसे गृहस्थ नहीं। किया जाता। वसति में आने पर उसे गृहिलिंग दिया जाता है। ० गृहस्थवेश क्यों?
ओभामितो न कुव्वति, पुणो वि सो तारिसं अतीचारं। होति भयं सेसाण, गिहिरूवे धम्मता चेव॥ किं वा तस्स न दिज्जति, गिहिलिंगं जेण भावतो लिंग। अजढे वि दव्वलिंगे, सलिंग पडिसेवणा विजढं ॥
(व्यभा १२०८, १२०९) प्रायश्चित्ती के गृहस्थ वेश धारण करने के दो लाभ हैं१. पुनः गृहस्थ-अवस्था प्राप्ति का अर्थ है-तिरस्कार । तिरस्कृत भिक्षु पुनः वैसा दोषसेवन नहीं करता। २. शेष साधुओं में दोषसेवन के प्रति भय उत्पन्न होता है।
उसे गहिलिंग क्यों नहीं दिया जाये? दिया जाना ही चाहिये क्योंकि उसने द्रव्यलिंग छोडे बिना स्वलिंग में ही प्रतिसेवना की
यो है, इससे भावलिंग तो परित्यक्त हो ही गया।
गृहस्थवेश और उपस्थापना विधि वरनेवत्थं एगे, हाणविवजमवरे जुगलमेत्तं। परिसामज्झे धम्म, सणेज्ज कधणा पणो दिक्खा॥
(व्यभा १२०७) कुछ आचार्य कहते हैं-उसे उपस्थापन से पूर्व अच्छी वेशभूषा पहनायी जाती है, स्नान नहीं कराया जाता। दाक्षिणात्य आचार्यों का मत है-उसे मात्र वस्त्रयुगल धारण करवाया जाता है।
उपस्थापनार्ह भिक्षु परिषद् में खड़ा होकर कहता है-भंते ! मैं धर्मदेशना सुनना चाहता हूं। इस निवेदन पर आचार्य धर्मकथा करते हैं। धर्मश्रवण कर वह पुनः प्रार्थना करता है-मैं इस निर्ग्रथप्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। अब मुझे पुनः प्रव्रजित करें। तत्पश्चात् उसे मुनिवेश समर्पित कर दीक्षित किया जाता है।
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