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आगम विषय कोश-२
३६१
पारिहारिक
० अनवस्थाप्य-पारांचित अगृहीभूत भी
का वर्जन करने वाला उद्यतविहारी साधु। पार्श्वस्थ, अवसन्न, अणवठ्ठप्पं भिक्खं"॥पारंचियं भिक्खं अगिहिभूयं वा कुशील, संसक्त और यथाच्छंद श्रमण अपारिहारिक हैं। गिहिभूयं वा कप्पड़ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावेत्तए, जहा पारिहारिओ मूलुत्तरदोसे परिहरति। अहवा मूलुत्तरगुणे तस्स गणस्स पत्तियं सिया॥
धरेति आचरतीत्यर्थः ।.."अपरिहारी ते य अण्णतित्थिययस्त्वगृहीभूतः सोऽपवादविषयस्तस्योत्सर्गतः प्रतिषिद्धत्वात्। गिहत्था।
(नि २/३९ की चू) (व्य २/२२, २३ वृ) आधाकम्मादी णिकाए सावज्जजोगकरणं च। अनवस्थाप्य या पारांचिक भिक्षु अगृहीभूत हो या गृहीभूत, परिहारित्त परिहरं, अपरिहरंतो अपरिहारी॥ गणावच्छेदक उसे उपस्थापित कर सकता है, यदि उससे गण में
(निभा १०८१) प्रतीति उत्पन्न हो (जो उस गण के लिए प्रीतिकर हो)।
जो मूलगुण-उत्तरगुण संबंधी दोषों का वर्जन करता है अथवा प्रायश्चित्ती को गृहलिंग नहीं देना आपवादिक है। अगृहीभूत मूलगुणों और उत्तरगुणों को धारण करता है-उनका आचरण को पुनः प्रव्रजित नहीं करना-यह उत्सर्ग विधि है।
करता है, वह पारिहारिक है। अन्यतीर्थिक और गृहस्थ अपारिहारिक अग्गिहिभूतो कीरति, रायणुवत्तिय पदुट्ठ सगणो वा। हैं। परमोयावणइच्छा, दोण्ह गणाणं विवादो वा॥ जो आधाकर्म आदि दोषों, छहजीवनिकायअसंयम तथा
(व्यभा १२१०) पापकारी प्रवृत्तियों का तीन करण (मनसा, वाचा, कर्मणा), तीन पांच कारणों से प्रायश्चित्ती को गृहीभूत नहीं किया जाता
योग (कृत-कारित-अनुमति) से परिहार करता है, वह परिहारी ० राजानुवृत्ति-गृहस्थ न बनाने का राजा का आग्रह हो या उस
__ है और जो इनका परिहार नहीं करता, वह अपरिहारी है। भिक्षु ने किसी राजा को संघ के अनुकूल बनाया हो।
___..."लोउत्तरपरिहारो, दुविहो परिभोग धरणे य॥ ० गणप्रद्वेष-स्वगण ने द्वेषवश उसे यह प्रायश्चित्त दिलवाया हो। ...... आवण्ण सद्धपरिहारे। ........ ० परमोचापन-अपने उपकारी को कठोर प्रायश्चित्त वहन करते परिभोगे परि जति पाउणिज्जतीत्यर्थः । धारणपरिहारो देख अनेक शिष्य संयम छोड़ने को उद्यत हों।
नाम जं संगोविज्जति पडिलेहिज्जति य, ण य परि/जति।" ० इच्छा-उस भिक्षु या अनेक शिष्यों का वैसा आग्रह हो।
..."सुद्धपरिहारो जो वि सुच्चा पंचयामं अणुत्तरं धम्म ० विवाद-उस प्रायश्चित्त के संबंध में दो गणों में विवाद हो। परिहरइ-करोतीत्यर्थः। विसुद्धपरिहारकप्पो वा घेप्पइ। पारिहारिक-पापकारी प्रवृत्तियों का वर्जन करने वाला
आवण्णपरिहारो पुण जो मासियं वा जाव छम्मासियं वा
पायच्छित्तं आवण्णो तेण सो सपच्छित्ती असुद्धो अविसुद्धसाधु।
चरणेहिं साहूहिं परिहरिज्जति। (निभा ६२९४, ६२९५ चू) से भिक्खूणो ... परिहारिओ अपरिहारिएण वा सद्धिं
लोकोत्तर परिहार के दो रूप हैं-परिभोग और धारण। गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसेज्ज।
परिभोग-उपयोग या प्रयोग करना। __ पारिहारिकः-पिण्डदोषपरिहरणादुद्युक्तविहारी साधु
धारण-संगोपन और प्रतिलेखन करना, किन्तु परिभोग नहीं करना। रित्यर्थः.... 'अपरिहारिकेण' पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्त
परिहारी के दो प्रकार हैं-१. शुद्धपरिहारी-जो पंचयाम यथाच्छन्दरूपेण""।
(आचूला १/८ वृ)
___ रूप अनुत्तर धर्म को सुनकर उसका आचरण करता है। अथवा जो पारिहारिक अपारिहारिक के साथ गृहपति के घर में पिंडपात परिहारविशुद्धि चारित्र की आराधना करता है। की प्रतिज्ञा से (आहार प्राप्ति के लिए) प्रवेश न करे।
२. आपन्नपरिहारी-जो मासिक यावत् षाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त पारिहारिक का अर्थ है आहार संबंधी उद्गम आदि दोषों है। सप्रायश्चित्त होने से वह अशुद्ध है, इसलिए विशुद्ध चारित्र
मा
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