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पर्युषणाकल्प
८. वर्षावास में करणीय कार्य
पच्छित्तं बहुपाणा, कालो बलिओ चिरं च ठायव्वं । सज्झाय- संजम तवे, धणियं अप्पा णियोतव्वो । पुरिमचरिमाण कप्पो, तु मंगलं वद्धमाणतित्थम्मि । तो परिकहिया जिणगणहरा य थेरावलिचरितं ॥ ( निभा ३२०२, ३२०३) ऋतुबद्धकाल में प्राप्त तप-प्रायश्चित्त का वहन वर्षावास में करना चाहिए क्योंकि उस समय प्राणियों की बहुलता के कारण भिक्षाटन कठिन होता है, दीर्घकालिक प्रवास और तप हेतु काल की अनुकूलता होती है। शीतलता के कारण इन्द्रियां उद्दीप्त हो जाती हैं, उनके निरोध के लिए भी तप आवश्यक है।
वर्षावास में अपने आपको स्वाध्याय, संयम और तप में सघनता से नियोजित करना चाहिए।
वर्षा हो या न हो, वर्षाकाल में पर्युषणा करना प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शिष्यों का आचार है।
वर्धमानस्वामी के तीर्थ में मंगल होता है, मंगल के लिए अर्हत्-चरित्र, गणधर - चरित्र और स्थविरावलि का वाचन होता है। ९. पर्युषणा (संवत्सरी) पर्व दिन
भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेति अपज्जोसवणाए पज्जोसवेति आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अघातियं ॥ ( नि १० / ३६, ३७, ४१ )
जो भिक्षु पर्युषण में पर्युषण नहीं करता या अपर्युषण में पर्युषण करता है, वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
...... भद्दवयसुद्धपंचमीए युज्जति । सीसो पुच्छति - " इयाणिं कहं चउत्थीए अपव्वे पज्जोसविज्जति ? " आयरिओ भणति - "कारणिया चउत्थी अज्जकालगायरिएण पवत्तिया । " (निभा ३१५३ की चू)
भाद्रपद शुक्ला पंचमी को संवत्सरी होती है। शिष्य ने पूछा- आजकल अपर्वतिथि-चतुर्थी को संवत्सरी क्यों होती है ? आचार्य ने कहा- चतुर्थी कारणिक तिथि है, जो आचार्य कालक के द्वारा प्रवर्तित है।
• आर्यकालक : चतुर्थी को संवत्सरी
अज्जकालएण सातवाहणो भणितो - भद्दवयजोण्हस्स
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आगम विषय कोश - २
पंचमीए पज्जोसवणा । रन्ना भणितो - तद्दिवसं मम इंदो अणुजातव्वो होहिति तो ण पज्जुवासिताणि चेतियाणि साधुणो वा भविस्संति त्ति कातुं तो छट्ठीए पज्जोसवणा भवतु । आयरिएण भणितं न वट्टति अतिक्कामेतुं । रन्ना भणियं - ते उत्थी भवतु | आयरिएण भणितं - एवं होउत्ति चउत्थीए कता पज्जोसवणा । एवं चउत्थीवि जाता कारणिता ।
(दशानि ६८ की चू)
३४८
में
आर्यकालक ने महाराज शातवाहन से कहा- 'भाद्रपद मास शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को पर्युषणा (संवत्सरी) है।' राजा ने कहा- आर्य ! उस दिन मेरे इन्द्रमहोत्सव होता है अतः उस दिन चैत्य और साधु पर्युपासित नहीं होंगे। इसलिए पंचमी तिथि के स्थान पर छठ के दिन पर्युषणा हो । आचार्य ने कहा- तिथि का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। राजा ने कहा- यदि ऐसा है तो चतुर्थी के दिन पर्युषणा हो जाए। आचार्य ने कहा- ऐसे ही हो । इस प्रकार चतुर्थी को पर्युषणा की आराधना की गई। इस तिथि का निर्णय कारणवश लिया गया।
(संवत्सरी जैन शासन का सबसे बड़ा पर्व है। इसका महत्त्व सार्वदेशिक और सार्वकालिक है। आगमकालीन व्यवस्था --- आगम युग में संवत्सरी जैसा शब्द प्रचलित नहीं था । संवत्सरी का मूल नाम है- पर्युषणा । पर्युषणा के विषय में आगमों में अनेक निर्देश मिलते हैं। पर्युषणाकल्प के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षा ऋतु के पचास दिन बीत जाने पर वर्षावास की पर्युषणा की थी। गणधरों, स्थविरों और आधुनिक श्रमण निर्ग्रन्थों ने भी उस परम्परा का अनुसरण किया। इसमें केवल पचास दिन का उल्लेख है 1
समवायांग सूत्र में उत्तरवर्ती दिनों का भी उल्लेख किया गया है। उसके अनुसार श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षावास के पचासवें दिन तथा सत्तर दिन शेष रहने पर वर्षावास की पर्युषणा की। प्राचीन परम्परा -- भाष्य और चूर्णिकालीन परम्परा पर्युषणा की प्राचीन परम्परा है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पर्युषणा करना उत्सर्ग मार्ग बतलाया है। अपवाद मार्ग में पांच-पांच दिन बढ़ाने का निर्देश प्राप्त है। इसका नियम यह रहा कि पर्युषणा पर्वतिथि में होनी चाहिए, जैसे- पूर्णिमा, पंचमी और दसमी । आधुनिक परम्परा - आधुनिक परम्परा में पर्युषणा के स्थान पर
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