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पारांचित
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आगम विषय कोश-२
चाहे तो पूरा संघ मिलकर उसके लिंग का हरण करे, अकेला न ०दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद करे, ताकि वह उस एक पर द्वेष न करे।
प्रथमसंहननचतुर्दशपूर्विणोः समकं व्यवच्छिन्नयोरन० पुनः लिंगापहार कैसे?
वस्थाप्यं पाराञ्चितं च व्यवच्छिन्नम्। (व्यभा ४१८१ की वृ) अवि केवलमुप्पाडे, न य लिंगं देति अणतिसेसी से। प्रथम संहनन (वज्रऋषभनाराच) और चतुर्दशपूर्वी-दोनों देसवत दंसणं वा, गिण्ह अणिच्छे पलायंति॥ का एक साथ विच्छेद हुआ। उनके व्यवच्छिन्न होने पर अनवस्थाप्य
यः पुनरतिशयज्ञानी स जानाति-न भूय एतस्य और पारांचित-ये दोनों अंतिम प्रायश्चित्त भी विच्छिन्न हो गए। स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो भविष्यति, ततो लिङ्गं ददाति, इतरथा न (अनवस्थाप्य और पारांचित के चार-चार भेद हैं-लिंग, ददाति।
(बभा ५०२४ व) क्षेत्र, काल और तप। तप अनवस्थाप्य और तप पारांचित का स्त्यानर्द्धिनिद्रा वाले के उसी भव में केवली होने की
चौदहपूर्वी के साथ विच्छेद हो गया। शेष भेद जब तक तीर्थ है. संभावना हो. फिर भी अनतिशायी जानी उसे पनः लिंग नहीं देता। तब तक रहग।-जातकल्प गाथा ८९, ९७, १०२) जो अतिशयज्ञानी है, वह जान लेता है कि अब इसके स्त्यानर्द्धि ८. तपपारांचित-तपअनवस्थाप्य वहन की अर्हता निद्रा का उदय नहीं होगा तो वह उसे पुनः लिंग देता है, अन्यथा संघयण-विरिय-आगम-सुत्त-ऽत्थ-विहीए जो समग्गो तु। नहीं देता है।
तवसी निग्गहजुत्तो, पवयणसारे अभिगतत्थो॥ लिंगापहार के समय उसे कहा जाता है-तुम अणुव्रतधारी तिलतुसतिभागमित्तो, वि जस्स असुभो ण विज्जती भावो। श्रावक बन जाओ। यह संभव न हो तो दर्शन श्रावक हो जाओ। निज्जूहणाइ अरिहो, सेसे निजूहणा नत्थि॥ यदि इस बात को वह मान्य न करे और लिंग छोड़ना न चाहे तो ..... एयगुणविप्पमुक्के, तारिसगम्मी भवे मूलं ॥ रात्रि में उसे सोया हुआ छोड़कर गच्छ अन्यत्र चला जाए।
एयगुणसंपउत्तो, अणवठ्ठप्पो य होति नायव्वो।.... ७. क्षेत्र-लिंग-तप-पारांचिक
(बृभा ५०२९-५०३१, ५१३१) ...""कुल गण संघे निज्जूहणाएँ पारंचितो होति॥ जो वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त हो, जिसकी धृति बिइओ उवस्सयाई, कीरति पारंचितो न लिंगातो। वज्रभित्ति की भांति सुदृढ हो, जो कम से कम नौवें पूर्व के तृतीय अणुवरमं पुण कीरति, सेसा नियमा तु लिंगाओ॥ आचारवस्तु का ज्ञाता तथा उत्कृष्टतः असम्पूर्ण दशपूर्वी हो, जो इंदिय-पमाददोसा, जो पुण अवराहमुत्तमं पत्तो। सूत्र और अर्थ-दोनों से परिचित और विधि के समाचरण में सब्भावसमाउट्टो,
कुशल हो, तपःकर्म से भावित, इन्द्रिय और कषाय का निग्रह करने 'निश्चयेन भूयोऽहमेवं न करिष्यामि' इति व्यवसितस्तदा वाला तथा प्रवचन के रहस्यों का ज्ञाता हो, गच्छ से निर्मूढ होने पर सतपःपाराञ्चिकः क्रियते। (बृभा ५०१२, ५०२७,५०२८ वृ) भी जिसके मन में तिल-तुष मात्र भी अशुभ भाव न आता हो, वह ० क्षेत्र-लिंग-पारांची-विषय दुष्ट को उपाश्रय आदि क्षेत्रों से
नि!हणा के योग्य है, शेष नहीं। इन गुणों से रहित होने पर पारांचिक किया जाता है, लिंग से नहीं। विषयदोष से उपरत नहीं
___ पारांचित के स्थान पर मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। होने पर लिंग से भी पारांचिक किया जाता है। शेष-कषायदुष्ट,
अनवस्थाप्य वहन की अर्हता पारांचित के समान ही है। प्रमत्त और अन्योन्यसेवी को नियमतः लिंगपारांची किया जाता है। ९. अन्य गण में पारांचितवहन क्यों?
जो कुल के द्वारा बहिष्कृत है, वह कुल पारांचिक, जो गण इत्तिरिय णिक्खेवं, काउं अण्णं गणं गमित्ताणं। और संघ से बाह्यकृत है, वह गणपारांचिक और संघपारांचिक है। दव्वादि सुभे विगडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥ ० तपपारांची-जो इन्द्रियदोष अथवा प्रमाददोष के कारण उत्कृष्ट अप्पच्चय णिब्भयया, आणाभंगो अजंतणा सगणे। अपराध कर निश्चयपूर्वक यह कहता है कि मैं पुनः ऐसा अपराध परगणे न होंति एए, आणाथिरता भयं चेव॥ नहीं करूंगा, उसे तप-पारांचिक किया जाता है।
(बृभा ५०३३, ५०३४)
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