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आगम विषय कोश-२
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पारांचित
ईदृशाः स्वपक्षकषायदुष्टा लिंगपाराञ्चिकाः कर्त्तव्याः। ६. प्रमत्त (स्त्यानर्द्धि) पारांचिक : लिंग पारांचिक
(बृभा ४९९३ की वृ) निद्दा पमाद पंचविधो।"तहिगं च इमे उदाहरणा॥ दुष्ट पारांचिक के दो प्रकार हैं-१. कषाय दुष्ट २. विषय
पोग्गल मोयग फरुसग, दंते वडसालभंजणे सुत्ते। दुष्ट । कषाय दुष्ट के चार दृष्टांत हैं-१. सर्षपभर्जिका २. मुखवस्त्रिका ।
एतेहिं पुणो तस्सा, विविंचणा होति जतणाए॥ ३. उलूकाक्ष ४. शिखरिणी।
स्त्याना-प्रबलदर्शनावरणीयकर्मोदयात् कठिनीभूता १. सर्षपनाल-एक बार एक साधु को सरसों की भाजी प्राप्त हई। ऋद्धिः-चैतन्यशक्तिर्यस्यामवस्थायां सा स्त्यानर्द्धिः । यथा वह उसमें अत्यन्त आसक्त था। उसने गुरु को दिखाया, निमन्त्रित
घृते उदके वा स्त्याने न किञ्चिदुपलभ्यते एवं चैतन्यऋद्ध्यामपि किया। गुरु ने सारी सब्जी खाई। यह देख शिष्य कुपित हुआ। गुरु
स्त्यानायां न किञ्चिदुपलभ्यते "पारांचिकस्य प्रस्तुतत्वात् को ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्षमायाचना की। पर शिष्य का कोप शांत
स्त्यानर्द्धिनिद्रयाधिकारः। (बृभा ५०१६, ५०१७ वृ), नहीं हुआ। मेरी असमाधिपूर्ण मृत्यु न हो, ऐसा सोच गुरु अपने निद्राप्रमाद के पांच भेद हैं-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, गण में योग्य शिष्य को गणी के रूप में स्थापित कर स्वयं दूसरे प्रचलाप्रचला, स्त्यानर्द्धि। पारांचित में स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रसंग है। गण में जाकर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन में स्थित हो गए। वहां जिस अवस्था में प्रबल दर्शनावरणीय कर्म के उदय से चेतनाशक्ति समाधिपूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो गए। वह साधु गुरु को खोजता हुआ जड़ीभूत हो जाती है, जम जाती है, वह स्त्यानर्द्धि है। जैसे घी या वहां पहुंचा और गुरु के विषय में पूछा। साधुओं ने कुछ भी नहीं पानी (हिम) के जम जाने पर किंचित् प्राप्त नहीं होता, वैसे ही बताया। दूसरों के द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि गुरु समाधिमृत्यु को प्राप्त चेतनाऋद्धि के भी जम जाने पर कुछ उपलब्ध नहीं होता। इस हो गए हैं। उसने पुन: पूछा-गुरु के शरीर का परिष्ठापन कहां निद्रा के संदर्भ में पांच दृष्टांत हैं-पुद्गल (मांस), मोदक, कुम्भकार, किया गया है? लेकिन गुरु ने पहले ही कह दिया था कि उसको दांत, वटशाखाभंजन।
(द्र श्रीआको १ कर्म) मेरे शरीर की परिष्ठापन-भूमि मत बताना। अत: वे मौन रह गए। इन दृष्टांतों के माध्यम से स्त्यानर्द्धि निद्रा की पहचान कर वह दूसरों से पूछकर परिष्ठापन भूमि में गया और मृत कलेवर के प्रतिसेवी का यतनापूर्वक परित्याग किया जाता है-उसे लिंगपारांचित दांतों को पत्थर से तोड़ा। प्रतिचारक साधओं ने उसे देखा। प्रायश्चित्त दिया जाता है। २. एक शिष्य को अत्यन्त उज्ज्वल मुखवस्त्रिका मिली। उसने गुरु ।
० अचारित्री की लिंग-हरण-विधि को दिखाई, गुरु ने अपने पास रख ली। उसको आक्रुष्ट हुआ
__केसवअद्धबलं पण्णवेंति मुय लिंग णत्थि तुह चरणं। देख गुरु ने वह मुखवस्त्रिका शिष्य को देनी चाही। शिष्य ने
णेच्छस्स हरइ संघो, ण वि एक्को मा पदोसं तु॥ इन्कार कर दिया। गुरु ने अनशन कर लिया। रात्रि में शिष्य ने
__ केशवः-वासुदेवस्तस्य बलादर्धबलं स्त्यानर्द्धिमतो गला इतने जोर से दबाया कि गुरु का प्राणान्त हो गया। ३. एक मुनि सूर्यास्त के पश्चात् भी कपड़ा सी रहा था। दूसरे मुनि
भवति"एतच्च प्रथमसंहननिनमंगीकृत्योक्तम्, इदानीं पुनः ने परिहास में कहा-अरे ! उलूकाक्ष ! अभी तक सिलाई कर रहे
सामान्यलोकबलाद् द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं वा बलं भवतीति हो? यह बात उसे चभ गई। उसने अनशनपूर्वक कालधर्म को मन्तव्यम्।
(बृभा ५०२३ वृ) प्राप्त उस मुनि की दोनों आंखें निकालकर प्रतिशोध लिया।
स्त्यानर्द्धि निद्रा वाले व्यक्ति में वासुदेव के बल से आधा ४. शिष्य को उत्कृष्ट शिखरिणी प्राप्त हुई। गुरु को निमंत्रित करने बल होता है। यह कथन प्रथम (वज्रऋषभनाराच) संहनन वाले पर उन्होंने स्वयं उसका उपभोग कर लिया। शिष्य का मन प्रतिशोध व्यक्ति की अपेक्षा से है। सामान्यतः लोकबल से उसका बल से भर गया। उसने समाधिपूर्वक कालप्राप्त गुरु के शरीर को दंड दुगुना, तीन गुना अथवा चार गुना भी हो सकता है। ऐसी निद्रा से पीटा। इस प्रकार के स्वपक्ष के प्रति तीव्रकषायपरिणत मुनि वाले साधु से कहना चाहिए-मुने! तुम लिंग छोड़ दो, तुम्हारे में लिंगपारांचिक किए जाते हैं।
चारित्र नहीं है। इस प्रकार कहे जाने पर यदि वह लिंग छोड़ना न
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