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पर्युषणाकल्प
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आगम विषय कोश-२
पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणगा, अणभिक्कंता पंथा, णो स्थाणु, कंटक, जलप्रवाह आदि बाधित कर सकते हैं। विण्णाया मग्गा, सेवं णच्चा णो गामाणगामंदइज्जेज्जा. तओ गिरिनदी के तटवर्ती मार्ग से जाने से अपि संजयामेव वासावासं उवल्लिएज्जा॥ (आचूला ३/१) ० भीग जाने के भय से वह वृक्ष के नीचे जाता है, उस समय वायु वर्षाकाल आने पर वर्षा होती है, बहुत से प्राणी उत्पन्न
के प्रबल वेग से वृक्ष टूट सकता है। होते हैं, तत्काल बहुत से बीज अंकुरित होते हैं, मार्ग में प्राणी,
० श्वापद, स्तेन आदि संत्रस्त कर सकते हैं। बीज, हरित, ओस और उदक की बहलता हो जाती है. चींटियों ० ग्लान-गीले वस्त्र पहनने से अजीर्ण हो सकता है। के बिल, फफूंदी, दलदल और मकड़ी के जाले बहुत होते हैं, मार्ग असिवे ओमोयरिए, रायहुढे भए व गेलन्ने। अनभिक्रान्त हो जाते हैं, (हरियाली आदि के कारण) मार्ग नाणादितिगस्सऽट्ठा, वीसुंभण पेसणेणं वा॥ अच्छी तरह से ज्ञात नहीं होते, इसको जानकर मुनि ग्रामानुग्राम आऊ तेऊ वाऊ, दुब्बल संकामिए अ ओमाणे। परिव्रजन न करे, एक स्थान में ही संयत होकर वर्षावास बिताये। ___ पाणाइ सप्प कुंथू, उट्ठण तह थंडिलस्सऽसती॥ ......"जओ णं पाएणं अगारीणं अगाराई कडियाई
(बृभा २७४१, २७४२) उक्कंबियाई छन्नाइं लित्ताइं गुत्ताइं घट्ठाई मट्ठाई सम्मट्ठाई तेरह कारणों से वर्षावास में विहार किया जा सकता हैसंपधूमियाइं खाओदगाइं खातनिद्धमणाई अप्पणो अट्ठाए कयाइं . महामारी, दुर्भिक्ष, राजद्विष्ट, स्तेनभय आदि स्थितियां उत्पन्न परिभुत्ताइं परिणामियाइं भवंति। (दशा ८ परि सू २२४) होने पर उनसे छुटकारा पाने के लिए।
...."कटादिभिः समन्तत: पाश्र्वानामाच्छादनम् उपरि ० ग्लान-ग्लान की परिचर्या के लिए। कम्बिकानां बन्धनम्"दर्भादिभिराच्छादनम"कड्यानां... ० ज्ञान-अपूर्व श्रुतस्कंध के ज्ञाता कोई आचार्य अनशन करना गोमयेन च लेपप्रदानम् .....।
(बभा ५८३ की व) चाहते हों, उस श्रुत का व्यवच्छेद न हो जाए इसलिए उसे प्राप्त वर्षाकाल में साधु को एक स्थान पर स्थित हो जाना चाहिये।
करने के लिए। क्योंकि उस समय तक प्रायः गृहस्थों के घरों के सब ओर के पार्श्व
० दर्शन-दर्शन प्रभावक ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए। भाग चटाइयों से आच्छादित, स्तंभ पर बांस की कम्बिकाओं का
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चारित्र-स्त्री और एषणा संबंधी दोषनिवारण के लिए। बन्धन, घर का उपरि भाग दर्भ से आच्छादित, दीवारें गोबर से
टित दीन गोल विष्वग्भवन-आचार्य की मृत्यु हो जाने पर तथा गण में दूसरा लीपी हुई, द्वार कपाटों से संरक्षित, विषम भूमिभाग घर्षण द्वारा सम
शिष्य आचार्य-योग्य न होने पर दूसरे गण की उपसम्पदा स्वीकार किये हुए, घर प्रमार्जित, अत्यंत साफ-सुथरे और धूप आदि सुगंधित
करने के लिए अथवा अनशन प्रतिपन्न की विशोधि के लिए। द्रव्यों से सुवासित होते हैं, भूमि को खोदकर जलाशय और नालियां
० प्रेषित-तात्कालिक कोई कारण उत्पन्न होने पर आचार्य के द्वारा
भेजे जाने पर वह वर्षाकाल में जाता है और कार्य सम्पन्न होने पर बनाई जाती हैं-गृहस्थ ये कार्य अपने प्रयोजन से करते हैं, इस प्रकार घर आदि स्थान गृहस्थों द्वारा कृत, परिभुक्त और परिणामित होते हैं।
तत्काल गुरु के पास आ जाता है।
० जलप्रवाह, अग्नि या तेज हवा से वसति भग्न हो गई हो अथवा ० विहार से हानि, विहार के अपवाद
गिरने जैसी स्थिति को प्राप्त हो गई हो। छक्कायाण विराहण, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु।
० संक्रामित-श्राद्धकुलों का अन्यत्र संक्रमण हो गया हो। वुब्भण अभिहण रुक्खोल्ल, सावय तेणे गिलाणे य॥
० अवमान–परतीर्थिकों के आने से भोजन में कमी हो गई हो। (बृभा २७३६)
० प्राणी-वसति जीव-जंतुओं से अथवा कुंथु जीवों से संसक्त हो वर्षावास में यात्रा करने के अनेक दोष हैं
गई हो अथवा. उसमें सर्प आदि आकर स्थित हो गए हों। ० छह काय की विराधना होती है।
० उत्थित-ग्राम उजड़ गया हो। ० विषम या पंकिल भूभाग में वह स्खलित हो सकता है। ० स्थण्डिल-स्थण्डिलभूमि का अभाव हो गया हो।
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