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आगम विषय कोश - २
५. तपवहन का उचित समय
गिम्हाणं आण्णो, चउसु वि वासासु देंति आयरिया |..... .......गुणा ततो वास ॥ वासासू''बलिओ कालो चिरं च ठायव्वं ।....... ( व्यभा १३३८ - १३४० )
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आचार्य ग्रीष्म और शीतकाल में प्राप्त परिहार तप का वहन वर्षाकाल के चारों मासों में करवाते हैं क्योंकि यह काल तपस्या आदि
गुणकारी है । वर्षाऋतु में काल की स्निग्धता तथा एक स्थान पर लम्बे प्रवास के कारण तप का वहन सुखपूर्वक होता है। ६. परिहार - ग्रहणविधि : आलाप आदि पदों का वर्जन ..... अगडे नदी य राया, दितो भीयआसत्थो ॥ निरुवस्सग्गनिमित्तं भयजणणट्ठाय सेसगाणं च । तस्सऽप्पणी य गुरुणो, य साहए होति पडिवत्ती ॥ कप्पट्ठितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीतो । पुवि कतपरिहारो, तस्सऽसतितरो वि दढदेहो ॥ एस तवं पडिवज्जति, न किंचि आलवति मा य आलवह। अत्तट्ठचिंतगस्सा, वाघातो भे ण कायव्व ॥ आलावण पडिपुच्छण, परियद्दृट्ठाण वंदणग मत्ते । पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव ॥ (व्यभा ५४६-५५०)
कदाचित् पारिहारिक भयभीत हो जाए कि मैं इस उग्र तप का वहन कैसे करूंगा, तो गुरु कूप आदि के दृष्टांत से उसे आश्वस्त कर देते हैं। गुरु कहते हैं - कोई कूप में गिर जाता है या नदी में बह जाता है तो तटस्थ व्यक्ति उसे आश्वस्त करते हुए कहते हैं - तुम डरो मत। हम तुम्हें निकाल देंगे। देखो, हम रज्जु ले आए हैं। इस प्रकार आश्वस्त होने पर वह निर्भय हो जाता कोई राजा कुपित हो, किसी को मृत्युदंड देता है तो अन्य व्यक्ति आश्वस्त करते कहते हैं - डरो मत। हम राजा से प्रार्थना हुए करेंगे। राजा अन्याय नहीं करेगा। वह अभय हो जाता है।
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गुरु पूर्व या उत्तर अथवा चरन्ती दिशा के अभिमुख होते हैं, पारिहारिक शिष्य गुरु के वाम पार्श्व में कुछ पीछे की ओर स्थित होता है। वे दोनों कहते हैं- 'परिहार तप स्वीकार कराने (करने) के लिए कायोत्सर्ग करता हूं।' कायोत्सर्ग के दो हेतु हैं
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परिहारतप
१. परिहारतप की निर्विघ्न समाप्ति के लिए।
२. अन्य साधुओं में भय पैदा करने के लिए। यथा - अमुक साधु ने ऐसी प्रतिसेवना की है, जिससे इसे महाघोर परिहारतप दिया गया है, अतः हमें ऐसे आपत्तिस्थान से प्रयत्नपूर्वक बचना है।
पच्चीस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग कर नमस्कारमंत्र से उसे पूरा कर चतुर्विंशतिस्तव का उच्चारण करते हैं। तत्पश्चात् परिहारतप प्रतिपत्ता तथा गुरु के अनुकूल शुभ तिथि- करण- मुहूर्त, शुभ ताराबल और शुभ चन्द्रबल में परिहारतप की प्रतिपत्ति होती है ।
गुरु उसे कहते हैं - तुम्हारी कल्पपरिहार- समाप्ति पर्यन्त मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित हूं (वंदना, वाचना आदि के लिए कल्पभाव में स्थित हूं, परिहार्य नहीं हूं, शेष साधु परिहार्य हैं) । यह गीतार्थ साधु तुम्हारा अनुपरिहारी (भिक्षा आदि के लिए परिहारी के पीछे-पीछे जाने वाला) है। यह कृतपरिहार होने से सकल सामाचारी का ज्ञाता है। पूर्व कृतपरिहार के अभाव में अन्य अकृतपरिहार गीतार्थ को अनुपरिहारी के रूप में स्थापित किया जाता | वह दृढ़ संहनन वाला होता है । तत्पश्चात् आचार्य सबालवृद्ध गच्छ को आमन्त्रित कर आलाप आदि दस वर्जनीय पदों को बताते हैं• यह साधु परिहारतप स्वीकार कर चुका है। यह किसी से बातचीत नहीं करेगा। तुम लोग भी इसके साथ आलाप-संलाप मत करना। यह आत्मार्थचिन्तक है - अपने लिए ही भिक्षा आदि की चिन्ता करेगा अथवा आत्मशोधन का चिन्तन करेगा। इसकी साधना में किसी प्रकार का व्याघात मत करना ।
• यह पारिहारिक सूत्र - अर्थ से संबंधित कोई भी प्रश्न तुमसे नहीं पूछेगा और न ही तुम इसे कुछ पूछ सकोगे 1
• यह तुम्हारे साथ सूत्रार्थ परिवर्तना नहीं करेगा, तुम भी इसके साथ परिवर्तना नहीं करोगे ।
• न यह तुम्हें काल वेला में उठायेगा, न तुम इसे उठाओगे । • न यह तुम्हें वंदना करेगा, न तुम लोग इसे वंदना करोगे। • न यह तुम्हें मात्रक लाकर देगा, न तुम इसे दोगे ।
• यह तुम्हारे किसी भी उपकरण की प्रतिलेखना नहीं करेगा, तुम भी इसकी नहीं करोगे ।
• इससे तुम्हारा और तुमसे इसका संघाटक नहीं होगा । ० न यह तुम्हें भक्त - पान लाकर देगा, न तुम इसको दोगे । ० न यह तुम्हारे साथ खायेगा, न तुम इसके साथ खाओगे ।
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