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आगम विषय कोश-२
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परिहारविशुद्धि
प्रथम तीर्थंकर के समय देशोन (कुछ कम) दो पूर्व कोटि तो परिहारविशुद्धि के पश्चात् भी रहेगा। इसलिए इन दोनों के तक यह परम्परा रहती है और अंतिम तीर्थंकर के समय कुछ कम असंख्येय संयमस्थान अधिक हैं। दो सौ वर्ष तक यह परम्परा रहती है।
परिहारकल्प का स्वीकरण परिहारविशुद्धि चारित्र के __आठ वर्ष की अवस्था में प्रव्रजित मुनि की नौवें वर्ष में संयमस्थान में विद्यमान होने पर ही होता है। पूर्वप्रतिपन्न की उपस्थापना होती है। मुनिपर्याय के उन्नीसवें वर्ष में उसे दृष्टिवाद अपेक्षा से सामायिक आदि के संयमस्थान विशुद्धतर होते हैं। की वाचना दी जाती है और एक वर्ष में दृष्टिवाद संबंधी योग सामायिक आदि अन्य संयमस्थानों में विद्यमान होने पर सम्पन्न होता है। इस प्रकार उनतीस वर्षीय मुनि अर्हत ऋषभ के भी व्यवहार नय की अपेक्षा वह परिहारविशद्धिक कहलाता है पास परिहारतप स्वीकार करते हैं और देशोन (उनतीस वर्ष कम) क्योंकि वह परिहारविशुद्धि संयमस्थानों का अनुभव कर चुका है पर्वकोटि पर्यंत उस कल्प का अनुपालन करते हैं। उनकी आय के और व्यवहारनय अतीत अर्थ को भी मान्य करता है। निश्चय नय पर्यंत भाग में उनके पास अन्य मुनि परिहारकल्प स्वीकार करते की अपेक्षा उसे पारिहारिक नहीं कहा जा सकता। हैं। वे भी देशोन पूर्वकोटि तक कल्प का पालन करते हैं। इस (सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनकसंयत और परिहारप्रकार देशोन दो पूर्वकोटि तक परिहारकल्प की परम्परा चलती है। विशुद्धिक-संयत-इनके संयमस्थान असंख्य होते हैं। सूक्ष्मसंपराययह कथन पूर्वकोटि आयुष्य वाले मुनियों की अपेक्षा से है। संयत के आन्तर्मुहूर्त्तिक असंख्य संयमस्थान होते हैं। यथाख्यातसंयत
भगवान महावीर के शासनकाल में कुछ कम दो सौ वर्ष के एक संयमस्थान होता है। सामायिकसंयत यावत् यथाख्यातसंयत तक परिहारकल्प की परम्परा अनवर्तित होती है-यह प्रतिपादन के चारित्रपर्यव अनंत होते हैं।-भ २५/४८६-४८८, ४९० सौ वर्ष के आयुष्य वाले मुनियों की अपेक्षा से है।
परिहारविशुद्धिक स्थितकल्पी, कषायकुशीलनिग्रंथ और तीर्थकर के पास परिहारकल्प स्वीकार करने वाले मुनि ही अप्रतिसेवी होते हैं। उनकी गति जघन्य सौधर्मकल्प, उत्कृष्ट अन्य मुनियों को परिहारकल्प में स्थापित कर सकते हैं । वे स्थापित सहस्रारकल्प है।-भ २५/४६२, ४६५, ४६८, ४८१) मुनि अन्य मुनियों को इस कल्प में स्थापित नहीं कर सकते। अतः संयमस्थान : अविभागपरिच्छेद कण्डक यह परम्परा दो पूर्वकोटि या दो सौ वर्ष से अधिक नहीं चलती। अविभागपलिच्छेया, ठाणंतर कंडए य छट्ठाणा।"
अविभागपलिच्छेदं, ८. सामायिक : ..."परिहारविशुद्धि के संयमस्थान
चरित्तपज्जव-पएस-परमाणू।... तुल्ल जहन्ना ठाणा, संजमठाणाण पढम-बितियाणं।।
ते कित्तिया पएसा, सव्वागासस्स मग्गणा होइ। तत्तो असंख लोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा॥
ते जत्तिया पएसा, अविभाग तओ अणंतगुणा॥ ते वि असंखा लोगा, अविरुद्धा ते वि पढम-बिइयाणं।
इह संयमस्थानं केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेन छिद्यमानं
निरंशतया यदा विभागं न यच्छति तदाऽसावन्तिमो अंशो उवरिं पि ततो असंखा, संजमठाणा उ दोण्हं पि॥
अविभागपरिच्छेद उच्यते। सर्वाकाशप्रदेशेभ्यश्चारित्रस्य सट्ठाणे पडिवत्ती, अन्नेसु वि होज्ज पुव्वपडिवन्नो।
अविभागपरिच्छेदा अनन्तगुणाः सर्व-जघन्येऽपि संयमस्थाने अन्नेसु वि वतो, तीयनयं वुच्चई पप्प॥
प्रतिपत्तव्याः। एषा अविभागपरिच्छेद-प्ररूपणा। (बृभा १४३२-१४३४) प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया द्वितीये सामायिक और छेदोपस्थापनीय के जघन्य संयमस्थान तुल्य संयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका होते हैं। उसके बाद असंख्येय लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण सामायिक- भवन्तीति। एषा स्थानान्तरप्ररूपणा। छेदोपस्थापनीय के संयमस्थान व्यतीत होने पर परिहारविशद्धि के तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत् ततोऽनन्तभागवृद्धम्, संयमस्थान भी असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। तीनों में एवं पूर्वस्मादुत्तरोत्तराणि अनन्ततमेन भागेन वृद्धानि निरन्तरं विशुद्धि की दृष्टि से साम्य है किन्तु सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयमस्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावदङ्गलमात्रक्षेत्रासंख्येय
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