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परिहारविशुद्धि
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आगम विषय कोश-२
काले उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां वा भवेयुः, न नोअव- पूर्वप्रतिपन्न की भी भजना है-एक भी हो सकता है, सर्पिण्युत्सर्पिण्यां सुषमसुषमादिषु वा प्रतिभागेषु।
पृथक्त्व भी हो सकते हैं। (अठारह मास पूर्ण होने पर आठ (बृभा १४३१७)
पारिहारिक अन्य कल्प को स्वीकार कर लेते हैं-इस अपेक्षा से ०क्षेत्र -पारिहारिक भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में होते हैं।
एक मुनि तथा दो, तीन आदि उसी कल्प का पालन करते हैं इस ० संहरण-इनका नियमत: संहरण नहीं होता।
अपेक्षा से पृथक्त्व परिमाण है।) ० कल्प-प्रथम और चरम तीर्थंकर के तीर्थ में होने कारण ये ६. परिहारी-अनुपरिहारी..." : परस्पर व्यवहार नियमतः स्थितकल्प में होते हैं।
पमाणं कप्पट्ठितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए। ०लिंग-इसी प्रकार इनके नियमत: द्रव्य और भाव दोनों प्रकार अणुपरिहारियाणं पि, पमाणं होति से विऊ॥ का लिंग होता है।
आलोयण कप्पठिते, तवमुज्जाणोवमं परिवहंते। ० काल-ये उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में होते हैं, नोअवसर्पिणी- अणुपरिहारिएँ गोवालए, व णिच्च उज्जुत्तमाउत्ते॥ उत्सर्पिणी या सुषमसषमा आदि प्रतिभागों में नहीं होते।
पडिपुच्छं वायणं चेव, मोत्तूणं णत्थि संकहा। * वसति, स्थण्डिल आदि
द्रजिनकल्प
आलावो अत्तणिद्देसो, परिहारिस्स कारणे॥ ० गणना : गण-पुरुष-प्रमाण
(बृभा ६४६९-६४७१) गणओ तिन्नेव गणा, जहन्न पडिवत्ति सयसो उक्कोसा। पारिहारिक और अनुपारिहारिक के द्वारा किसी प्रकार की उक्कोस जहन्नेणं, सतसो च्चिय पुव्वपडिवन्ना॥ स्खलना होने पर कल्पस्थित ही प्रायश्चित्त देने के लिए प्रमाणपुरुष सत्तावीस जहन्ना, सहस्स उक्कोसतो उ पडिवत्ती। होता है। पारिहारिक और अनुपारिहारिक मुनि कल्पस्थित के समक्ष सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्ना जहन्न उक्कोसा॥ आलोचना, प्रत्याख्यान आदि करते हैं। पारिहारिक मुनि तप का वहन पडिवजमाण भइया, इक्को विउ होज्ज ऊणपक्रोवे। करते हुए उद्यानिका के स्वच्छन्द विहारी की भांति सुखानुभूति करते पुव्वपडिवन्नया वि उ, भइया इक्को पहत्तं वा॥ हैं। अनुपारिहारिक भिक्षा आदि में उनके पीछे वैसे ही प्रयत्नशील
१४३५-१४३७) और आयुक्त रहते हैं, जैसे गायों के पीछे ग्वाला। गणप्रमाण-जघन्यतः तीन गण (सत्ताईस मनि) और उत्कर्षतः पारिहारिक आदि नवों व्यक्ति सूत्र-अर्थ की वाचना और शत-पृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ) गण एक साथ इस कल्प को प्रतिपृच्छा के अतिरिक्त परस्पर आलाप-संलाप नहीं करते। उठनेस्वीकार कर सकते हैं। पूर्वप्रतिपन्न उत्कृष्ट और जघन्य शतपृथक्त्व बैठने आदि में अशक्त होने पर पारिहारिक आत्मनिर्देश रूप आलाप गण होते हैं। (जघन्य पद से उत्कृष्ट पद अधिकतर होता है।) करते हैं, यथा-उत्थास्यामि, उपवेक्ष्यामि, भिक्षां हिण्डिष्ये...... ० पुरुष प्रमाण-जघन्य सत्ताईस व्यक्ति और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व ७. परिहारकल्प-परम्परा की कालावधि (दो हजार से नौ हजार) व्यक्ति एक साथ इस कल्प को स्वीकार पुव्वसयसहस्साइं, पुरिमस्स अणसज्जती। करते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट वीसग्गसो य वासाइं, पच्छिमस्साणुसज्जती॥ सहस्रपृथक्त्व होते हैं।
पव्वज्ज अट्ठवासस्स, दिट्ठिवातो उ वीसहिं । इस कल्प को स्वीकार करने वाले पुरुषों में भजना है। इति एकूणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे॥ अठारह मास की साधना पूर्ण होने के बाद कोई मुनि मृत्यु को प्राप्त पालइत्ता सयं ऊणं, वासाणं ते अपच्छिमे। हो जाता है। कोई जिनकल्प को स्वीकार कर लेता है। कोई गच्छ काले देसिंति अण्णेसिं, इति ऊणा तु बे सता॥ में चला जाता है। शेष मुनि यदि वही साधना करना चाहते हैं, तब पडिवन्ना जिणिंदस्स, पादमूलम्मि जे विऊ। उस गण की पूर्ति एक, दो आदि जितने साधुओं से होती है, उतने ठावयंति उ ते अण्णे, णो उ ठावितठावगा। साधु एक-साथ उस कल्प को स्वीकार करते हैं।
(बृभा ६४५०-६४५३)
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