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परिहारविशुद्धि
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निव्विसमाणकप्पट्ठिती, निव्विट्टकाइयकप्पट्ठिती, ॥ निर्विशमानाः - परिहारविशुद्धिकल्पं वहमानास्तेषां कल्पस्थिति:..... निर्विष्टकायिका नाम - यैः परिहारविशुद्धिकं तपो व्यूढम्, निर्विष्ट:- - आसेवितो विवक्षितचारित्रलक्षणः काय यैस्ते निर्विष्टकायिकाः, तेषां कल्पस्थितिः ।
(क ६/२० वृ) पूर्वगतश्रुत के रहस्यों के पारगामी मुनि परिहारविशुद्धि चारित्र की आचार - मर्यादा का परिहार -- आसेवन करते हैं, वह परिहारकल्प है । कल्पवहन की पूर्वापरता के आधार पर इसके दो रूप हैं१. निर्विशमानकल्पस्थिति - परिहारविशुद्धिकल्प को वहन करने वालों की आचार - मर्यादा ।
२. निर्विष्टकायिककल्पस्थिति - जो परिहारविशुद्धिकल्प की आराधना कर चुके हैं, उनकी आचार - मर्यादा ।
२. परिहारकल्प के अर्ह : श्रुत आदि सव्वे चरितमंतो य, दंसणे परिनिट्ठिया । पुलिया जहन्नेणं, उक्कोस दसपुव्विया ॥ पंचविहे ववहारे, कप्पे त दुविहम्मि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिणिट्टिया ॥ ......उत्कर्षतः 'दशपूर्विणः ' किञ्चिद् न्यूनदशपूर्वधरा मन्तव्याः । तथा 'पञ्चविधे व्यवहारे' आगम-श्रुता SS-ज्ञाधारणा - जीतलक्षणे 'द्विविधे च कल्पे' अकल्पस्थापनाशैक्षस्थापनाकल्परूपे जिनकल्प - स्थविरकल्परूपे वा । (बृभा ६४५४, ६४५५ वृ)
परिहारकल्प स्वीकार करने वाले का चारित्र निरतिचार तथा सम्यक्त्व परम विशुद्ध होता है। वह जघन्य नौ पूर्व तथा उत्कृष्ट कुछ कम दस पूर्वों का ज्ञाता होता है।
आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- इन पांच व्यवहारों और दो प्रकार के कल्पों-अकल्पस्थापनाकल्प और शैक्षस्थापनाकल्प अथवा जिनकल्प और स्थविरकल्प का वेत्ता तथा आलोचना आदि दस प्रकार की प्रायश्चित्त विधि में पारंगत मुनि ही परिहारकल्पस्थिति को स्वीकार कर सकता है।
३. परिहारकल्प स्वीकार करने से पूर्व
अप्पणो आउगं सेसं, जाणित्ता ते परक्कमं च बल विरियं पच्चवाते
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महामुनी । तहेव य ॥
आपुच्छिऊण अरहंते, मग्गं पमाणाणि य सव्वाई,
आगम विषय कोश - २
देखेंति ते इमं । अभिग्गहे य बहुविहे || (बृभा ६४५६, ६४५७)
परिहारकल्प स्वीकार से पूर्व मुनि विशिष्ट श्रुत के उपयोग से अपने आयुष्य, शारीरिक सामर्थ्य और जीवनीशक्ति को जानकर, भविष्य में रोग आदि की संभावना नहीं होने पर ही इस कल्प को स्वीकार करते हैं। वे तीर्थंकर की अनुज्ञा लेकर उनके पास ही इस कल्प को स्वीकार करते हैं। तीर्थंकर उनके समक्ष गणप्रमाण, पुरुषप्रमाण, उपधिप्रमाण आदि सामाचारी का प्रतिपादन करते हैं। और विविध प्रकार के अभिग्रहों का प्रज्ञापन करते हैं ।
४. निर्विशमान-निर्विष्टकायिक : तपसमाचरण - विधि
बारस दसऽट्ठ दस अट्ठ छ च्च अद्वेव छ च्च चउरो य । उक्कोस - मज्झिम- जहण्णगा उ वासा सिसिर गिम्हे ॥ आयंबिल बारसमं, पत्तेयं परिहारिगा परिहरति । अभिगहितएसणाए, पंचण्ह वि एगसंभोगो ॥ परिहारिओ वि छम्मासे अणुपरिहारिओ वि छम्मासा । कप्पट्ठितो वि छम्मासे एते अट्ठारस उ मासा ॥ अणुपरिहारिगा चेव, जे य ते परिहारिगा । भवंति ते ॥ भवंति ते ।
अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा गएहिं छहिं मासेहिं निव्विट्ठा ततो पच्छा ववहारं, पट्टवंति अणुपरिहारिया ॥ गएहिं छहिं मासेहिं निव्विट्ठा भवंति ते। पच्छा, परिहारं तहाविहं ॥
वह
ये तु चत्वारोऽनुपारिहारिका एकश्च कल्पस्थित: ते च प्रतिदिवसमाचाम्लं कुर्वन्ति । यस्तु कल्पस्थितः स स्वयं न हिण्डते, तस्य योग्यं भक्तपानमनुपारिहारिका आनयन्ति । (बृभा ६४७२-६४७७ वृ)
शुद्ध पारिहारिक वर्षाकाल में उत्कर्षत: पांच दिन का उपवास कर पारणक में आयंबिल करते हैं। कल्पस्थित और अनुपारिहारिक प्रतिदिन आयंबिल करते हैं। ऋतु के अनुसार तप इस प्रकार हैतप वर्षा ग्रीष्म उत्कृष्ट पांच दिन मध्यम चार दिन
शिशिर
जघन्य
तीन दिन
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चार दिन
तीन दिन
दो दिन
तीन दिन (तेला)
दो दिन (बेला)
एक दिन (उपवास)
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