________________
आगम विषय कोश---२
३३७
परिहारविशुद्धि
भी कर लेता है। उसके पुनः आगमन पर आचार्य अपने ज्ञानबल से शिष्य ने पूछा-भंते! किसी को परिहारतप और किसी अथवा दूसरों से सुनकर उसके अतिक्रमण को जान जाते हैं। को शुद्ध तप प्रायाश्चित्त देने का आधार क्या है? तब आचार्य ने तत्पश्चात वे उसे यथालघुस्वक (पांच दिन का निर्विकृतिक तप) कहा-पाषाण-मण्डप में जितना समा सके, उतना प्रक्षेप करने पर प्रायश्चित्त देते हैं।
__ भी उसके टूटने का भय नहीं रहता। एरण्ड मण्डप में उसकी __ वादी का निग्रह करना भी वैयावृत्त्य है। किसी नगर में झेलने की क्षमता के अनुसार ही प्रक्षेप किया जाता है। इसी प्रकार कोई वादी आ पहुंचा। वहां के श्रमणसंघ के पास कोई वादलब्धिसंपन्न धुति और संहनन से जो बलवान् है, उसे परिहार तप तथा दुर्बल मुनि नहीं था। आगंतुक आचार्य के पास परिहारतप वहन करने को शुद्ध तप दिया जाता है। वाला मनि वादलब्धि से संपन्न था। नगरस्थ आचार्य ने दो मुनियों १० परिवार और लेट के साथ संदेश भेजकर कहलवाया कि वादी का निग्रह करना है,
परिहाराच्छेदो गरीयान्। (व्यभा ७१८ की वृ) इसलिए वादलब्धिसंपन्न मुनि को भेजें। उन्होंने परिहारतप वहन करने वाले मुनि को वहां भेजा।
परिहारतप से छेद प्रायश्चित्त बड़ा है। वह राजसभा में जाता है। वादी का निग्रह कर प्रवचन की 'छेदो' वा पञ्चरात्रिन्दिवादिः 'परिहारो' वा मासलघुप्रभावना करता है। उस समय प्रवचन की जुगुप्सा न हो, इस दृष्टि कादिस्तपोविशेषो भवति। (क २/४ की वृ) से वह पैर धोता है, दांतों का प्रक्षालन करता है, वाक्पाटव और
छेद पांच अहोरात्र से छह मास पर्यंत होता है। मेधापरिवर्धन के लिए प्रणीत आहार करता है, ऊहात्मक मति और आंतरिक उत्साह बढ़ाने के लिए वातिक आदि पदार्थों का सेवन
परिहार तपविशेष है। वह मासलघु से छह मास पर्यंत होता है। करता है, सभा में विजय प्राप्त करने के लिए शुक्ल वस्त्र धारण परिहारविशुद्धि-चारित्र का तीसरा प्रकार, विशिष्ट श्रुतकरता है-ये प्रतिसेवनाएं करता है। जब वह लौटकर आता है,
सम्पन्न नौ साधुओं द्वारा अठारह मास तक तब नौ-दसपूर्वी, चतुर्दशपूर्वी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी अथवा
किया जाने वाला तप का विशेष प्रयोग। केवलज्ञानी अपने ज्ञानबल से स्वयं जानकर अथवा अन्य स्रोतों से
| १. परिहारकल्प : निर्विशमान-निर्विष्टकायिक जानकर उसे कहते हैं-तुमने परवादी का निग्रह कर प्रवचन की
| * निर्विशमान" : कल्पस्थिति के भेद द्रकल्पस्थिति प्रभावना की है, अतः अल्प प्रायश्चित्त दिया गया है। आगे से ये
| २. परिहारकल्प के अर्ह : श्रुत आदि प्रतिसेवनाएं मत करना।
३. परिहारकल्प स्वीकार करने से पूर्व १८. शुद्धतप और परिहारतप में अंतर
४. निर्विशमान-निर्विष्टकायिक : तपसमाचरण-विधि आलवणादी उ पया, सुद्धतवे तेण कक्खडो न भवे।
५. शुद्धपरिहार और जिनकल्प में अंतर इतरम्मि उ ते नत्थी, कक्खडओ तेण सो होति ।।
०क्षेत्र, संहरण आदि (व्यभा ५५८)
० गणना : गण-पुरुष-प्रमाण शद्ध तप में आलपन, वंदन, सहभोजन आदि दसों पदों का .परिहारी-अनपरिहारी...: परस्पर व्यवहार प्रयोग होता है, इसलिए वह कर्कश नहीं है। परिहारतप में इन ७. परिहारकल्प-परम्परा की कालावधि दसों पदों का परिहार-निषेध कर दिया जाता है, इसलिए वह ८.सामायिक"परिहारविशद्धि के संयमस्थान कठोर है।
०संयमस्थान : अविभागपरिच्छेद"कण्डक.... काल और तपःकरण की अपेक्षा से दोनों तप तुल्य हैं। १. परिहारकल्प : निर्विशमान-निर्विष्टकायिक जं मायति तं छुब्भति, सेलमए मंडवे न एरंडे। परिहारकप्पं ...... परिहरंति जहा विऊ।...... उभयबलियम्मि एवं, परिहारो दुब्बले सुद्धो॥ ...विदितपूर्वगतश्रुतरहस्यास्तं कल्पं परिहरन्ति' धातू
(व्यभा ५४२) नामनेकार्थत्वाद् आसेवन्ते। (बृभा ६४४७ वृ)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org