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आगम विषय कोश-२
पारिहारिक पृथक्-पृथक् आहार करते हैं । वे आहार आदि की दृष्टि से परस्पर साम्भोजिक नहीं होते, कल्पस्थित और चार अनुपारिहारिक- इन पांचों का एक सम्भोज होता है।
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शुद्धपारिहारिक अभिगृहीत एषणाओं से आहार- पानी ग्रहण करते हैं। कल्पस्थित स्वयं भिक्षाचर्या नहीं करता, अनुपारिहारिक उसके योग्य भक्त - पान लाते हैं।
पारिहारिक प्रथम छह महीनों में प्रस्तुत तप वहन करते हैं। तत्पश्चात् अनुपारिहारिक छह मास पर्यंत तप करते हैं और पूर्व पारिहारिक उनका अनुपारिहारिकत्व स्वीकार करते हैं। अंतिम छह मास पर्यंत कल्पस्थित परिहारतप करता है और उन आठों में से एक कल्पस्थित (गुरुकल्प) तथा शेष अनुपारिहारिक के रूप में नियुक्त होते हैं।
पारिहारिक और अनुपारिहारिक परस्पर एक-दूसरे का वैयावृत्त्य करते हैं, कालभेद के कारण उनमें विरोध नहीं आता ।
वे तप-वहन काल में निर्विशमान और छह-छह मास तक तप-वहन के पश्चात् निर्विष्टकायिक कहलाते हैं । इस प्रकार अठारह महीनों में इस परिहारकल्प की साधना सम्पन्न होती है। * निर्विशमान और निर्विष्टकायिक द्र श्रीआको १ चारित्र अट्ठारसहिं मासेहिं, कप्पो होति समाणितो । मूलट्ठवणाएँ समं, छम्मासा तु अणूणगा ॥ एवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया । तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं ॥ अट्ठारसेहिं पुण्णेहिं, मासेहिं थेरकप्पिया । पुणो गच्छं नियच्छंति, एसा तेसिं अहाठिती ॥ (बृभा ६४७८-६४८० ) पारिहारिक प्रथमतः जो तप स्वीकार करते हैं, उनकी अवधि अन्यून छह मास होती है— उसे मूलस्थापना कहा गया है। अनुपारिहारिक और कल्पस्थित का तप मूलस्थापना के तुल्यछह-छह मास का होता है। इस प्रकार अठारह मास में यह कल्प सम्पन्न होता है।
इस कल्प साधना के सम्पन्न होने पर उनमें जो जिनकल्पिक होते हैं, वे जीवनपर्यंत उसी कल्प की अनुपालना करते हैं। उनकी संख्या न्यून (आठ आदि) भी हो सकती है।
उनमें जो स्थविरकल्पिक होते हैं, वे पुनः अपने गच्छ में
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परिहारविशुद्धि
चले जाते हैं - यह उनकी कल्पस्थिति ( आचार मर्यादा) है। ५. शुद्धपरिहार और जिनकल्प में अंतर
एसेव कमो नियमा, सुद्धे परिहारिए अहालंदे । नाणत्ती य जिणेहिं, पडिवज्जइ गच्छ गच्छो य ॥ तवभावणणाणत्तं, करंति आयंबिलेण परिकम्मं । इत्तिरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहियाओ ॥ पुणे जिपं वा अइंति तं चेव वा पुणो कप्पं । गच्छं वा इंति पुणो, तिन्नि विहाणा सिं अविरुद्धा ॥ इत्तरियाणुवसग्गा, आतंका वेयणा य न भवंति । आवकहियाण भइया, तहेव छ ग्गामभागा उ ॥ (बृभा १४२५ - १४२८ )
शुद्धपारिहारिक और यथालन्दिक का प्रव्रज्या, शिक्षा, देशाटन आदि का क्रम जिनकल्पिक के समान ही है। जिनकल्पिक से शुद्धपारिहारिक की सामाचारी में अनेक बातों में भेद है । यथा० व्यक्ति - जघन्यतः तीन गच्छ यानी नौ मुनि एक साथ शुद्धपरिहारकल्प स्वीकार करते हैं ।
० तपभावना—आयंबिल का पूर्वाभ्यास करते हैं ।
० प्रकार - इनके दो प्रकार हैं - १. इत्वरिक - जो कल्प सम्पन्न होने के बाद स्थविरकल्प स्वीकार कर लेते हैं । २. यावत्कथिकजो कल्प सम्पन्न होने पर जिनकल्प को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक के अविरुद्ध तीन प्रकार बन जाते हैं
१. परिहारकल्प पूर्ण होने पर जिनकल्प स्वीकार करना । २. अथवा पुनः उसी परिहारविशुद्धि कल्प का पालन करना । ३. अथवा पुनः गच्छ में आना ( स्थविरकल्प स्वीकार करना) । ० उपसर्ग - इत्वरिक पारिहारिक के उपसर्ग, आतंक और वेदनाये नहीं होते - यह उस कल्प का ही प्रभाव है।
यावत्कथिक पारिहारिक के उपसर्ग आदि की भजना है, क्योंकि जिनकल्पस्थिति में ये संभव हैं।
० भिक्षाचर्या - जिनकल्पिक की तरह पारिहारिक भी भिक्षाटन के लिए ग्राम के छह विभाग करते हैं।
०
क्षेत्र, संहरण आदि
खेत्ते भरहेरवएसु होंति, साहरणवज्जिया नियमा । ठियकप्पम्मि उ नियमा, एमेव य दुविह लिंगे वि ॥
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