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परिहारतप
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आगम विषय कोश-२
१०. पारिहारिक के वैयावृत्त्य का विधान
परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पइ आयरिय- उवज्झाएणं तद्दिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवावेत्तए, तेण परं नो से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउँ वा। कप्पड़ से अण्णयरं वेयावडियं करेत्तए, तं जहा-उद्रावणं वा निसीयावणं वा तयद्रावणं वा उच्चार- पासवण-खेल-सिंघाण-विगिंचणं वा विसोहणं वा करेत्तए॥
अह पुण एवं जाणेज्जा-छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छेज वा पवडेज्ज वा, एवं से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥
(क ४/२७, २८) __आचार्य-उपाध्याय परिहारकल्पस्थित भिक्षु को, जिस दिन वह परिहारकल्प स्वीकार करता है, उस दिन एक घर से आहार दिला सकते हैं। उस दिन के बाद उसे अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य एक बार या बार-बार न दे सकते हैं, न दिला सकते हैं। किन्तु अपेक्षा होने पर उसका किसी भी प्रकार का वैयावृत्त्य कर सकते हैं। यथा-उठाना, बिठाना, करवट बदलना (सुलाना), मल-मूत्र, श्लेष्म, कफ आदि का परिष्ठापन करना, मल आदि से खरंटित उपकरणों का प्रक्षालन करना।
यदि उन्हें ऐसा ज्ञात हो कि ग्लान और भूख-प्यास से क्लांत पारिहारिक आवागमन रहित पथों से गुजरता हुआ गांव तक नहीं पहुंच सकता अथवा तपस्या के कारण दुर्बल बना हुआ भिक्षाचर्या करता हुआ मूर्छित हो सकता है, गिर सकता है, तो वे उसे अशन आदि लाकर दे सकते हैं, दिला सकते हैं।
परिहारकप्पट्ठियं भिक्खं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए। अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया॥ (व्य २/६)
गणावच्छेदक ग्लान परिहारकल्पस्थित भिक्षु का निर्वृहणउसके वैयावृत्त्य का निषेध नहीं कर सकता। रोग और आतंक से मुक्त होने तक उसकी अग्लान भाव से सेवा करणीय है। तत्पश्चात् वह यथालघुस्वक (अत्यल्प) प्रायश्चित्त में प्रस्थापनीय है। ११. परिहारी : आहारवितरण-विकृतिसेवन-अनुज्ञा
परिहारकप्पट्ठियस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ असणं वा
.."दाउँ वा अणुप्पदाउं वा।थेरा यणं वएज्जा-इमंता अज्जो! तुमं एएसिं देहि वा अणुप्पदेहि वा। एवं से कप्पइ दाउं वा अणुप्पदाउं वा।कप्पइ से लेवं अणुजाणावेत्तए अणुजाणह भंते! लेवाए? एवं से कप्पइ लेवं समासेवित्तए।।
..."अन्यस्मै साक्षात् स्वहस्तेन दातुमनुप्रदातुं वा परम्परकेण प्रदातम अनशब्दस्य परम्परकद्योतकत्वात इह यहानमनुप्रदानं वा परिभाजनमुच्यते। (व्य २/२८ वृ)
परिहारकल्पस्थित भिक्षु (अपारिहारिक भिक्षु को) अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का दान-अनुप्रदान नहीं कर सकता।
आचार्य कहें-आर्य! इस भोजन को इन भिक्षओं में वितरित करो-इस प्रकार अनुज्ञा पाकर वह अशन आदि परोस सकता है।
वह गुरु की आज्ञा प्राप्त कर लेप (घत आदि विगय) ले सकता है। 'भंते ! मुझे लेप की अनुज्ञा दें'-इस प्रकार अनुज्ञा प्राप्त कर वह लेप का आसेवन कर सकता है।
दान का अर्थ है-साक्षात अपने हाथ से अन्य साधको देना और अनुप्रदान का अर्थ है-परम्पर देना। अथवा दान-अनुप्रदान का अर्थ है-परिंभाजन भोजन का विभाग करना वितरण करना। किह तस्स दाउ किज्जति, चोदग! सुत्तं तु होति कारणियं। सो दुब्बलो गिलायति, तस्स उवाएण देंतेवं॥ तवसोसियस्स मज्झो, ततो व तब्भावितो भवे अधवा। थेरा णाऊणेवं, वदंति भाएहि तं अज्जो॥ परिमित असती अण्णो, सो वि य परिभायणम्मि कसलो उ। उच्चूरपउरलंभे,
अगीतवामोहणनिमित्तं ॥ परिभाइयसंसद्धे, जो हत्थं संलिहावइ परेण। फुसति व कुड्डे छड्डे, अणणुण्णाए भवे लहुओ॥ कप्पति य विदिण्णम्मी, चोदगवयणं च सेससूवस्स। एवं कप्पति अप्पायणं च कप्पट्टिती चेसा॥
(व्यभा १३४४-१३४८), __ परिहारी आहार का विभाग नहीं कर सकता, फिर वह क्यों करता है ? गुरु ने कहा-आयुष्मन् ! यह कारणिक सत्र है-परिहारी का शरीर तप से शोषित है, वह दुर्बल और ग्लान हो रहा है-इस कारण को जानकर ग्लान की अनुकम्पा के लिए आचार्य इस उपाय से उसे विकृति देते हैं।
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