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आगम विषय कोश - २
तो अनुपारिहारिक अकेला ही भिक्षा के लिए जाता है। उसके भण्डोपकरण की प्रतिलेखना में सहयोग करता है । अनुपारिहारिक यह सारा कार्य उसी प्रकार मौनभाव से करता है, जैसे कोई व्यक्ति अपने कुपित प्रिय बंधु के कार्य करता है।
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दो साहम्मिया एगओ विहरंति, एंगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चद्वाणं पडिसेवेत्ता आलोएज्जा, ठवणिज्जं ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥
.... एकत एकस्मिन् स्थाने समुदितौ विहरतः । तत्र यद्यगीतार्थः प्रतिसेवितवान्, ततस्तस्मै शुद्धतपो दातव्यमथ गीतार्थस्तर्हि यदि परिहारतपोयोग्यमापन्नस्ततः परिहारतपो दद्यात्।'''''य आपन्नः स परिहारतपः प्रतिपद्यते । इतरः कल्पस्थितो भवति । स एव च तस्यानुपारिहारिकः । (व्य २/१ वृ)
दो साधर्मिक मुनि एक साथ विहरण करते हों, उनमें से एक मुनि यदि किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे तो उसे स्थापनीय (परिहारतप) में स्थापित कर दूसरा साधर्मिक उसका वैयावृत्त्य करे ।
आलोचक यदि अगीतार्थ है तो उसे शुद्ध तप रूप प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह गीतार्थ है और उसे परिहारतप योग्य प्रायश्चित्त प्राप्त है तो उसे परिहारतप देना चाहिए। वह परिहारतप स्वीकार करता है। दूसरा साधर्मिक कल्पस्थित होता है और वही अनुपारिहारिक होता है ।
९. परिहारी - अपरिहारी की पात्र सामाचारी
परिहारकपट्ठिए भिक्खू सएणं पडिग्गहेणं बहिया अप्पणी वेयावडिया गच्छेज्जा । थेरा य णं वएज्जापडिग्गाहेहि णं अज्जो ! अहं पि भोक्खामि वा पाहामि वा । एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए । तत्थ नो कप्पड़ अपरिहारियस्स परिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा, कप्पड़ से सयंसि वा पडिग्गहंसि पाणिंसि वा उद्धट्टु-उद्धड्ड भोत्तए वा पाय वा । एस कप्पो अपरिहारियस्स परिहारियाओ ॥
परिहारकपट्ठिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहेणं बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा । थेरा य णं वएज्जा - -पडिग्गाहेहि अज्ज! तुमं पि भोक्खसि वा पाहिसि वा । एवं से कप्पड़ पडिग्गात्त । तत्थ नो कप्पड़ परिहारियस्स अपरिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा... भोत्तए वा पायए वा, कप्पड़ से सयंसि वा
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परिहारतप
पडिग्गहंसि "पाणिंसि वा उद्धट्टु-उद्धट्टु भोत्तए वा पायए वा । एस कप्पो परिहारियस्स अपरिहारियाओ ।। (व्य २ / २९, ३०) सपडिग्गहे परuडिग्गहे, य बहि पुव्व पच्छ तत्थेव ।...... कारणिय दोन्नि थेरा, सो व गुरू अधव केणई असहू । पुव्वं सयं तु गेहति, पच्छा घेत्तुं च थेराणं ॥ ....सम्पडिग्गहेतरेण व, परिहारी वेयवच्चकरे ॥ दुल्लभदव्वं पडुच्च, व तवखेदितो समं व सति काले । ......पुव्वं भोक्तुं थेरा, दलंति समगं च भुंजंति ॥ (व्यभा १३५२ - १३५६)
परिहारकल्पस्थित को अपना पात्र लेकर अपने वैयावृत्त्यभिक्षा लाने के लिए वसति से बाहर जाते हुए देखकर यदि स्थविर (आचार्य) कहें - आर्य! मेरे लिए भी भिक्षा लाना, मैं भी खाऊंगापीऊंगा - ऐसा कहने पर वह अपने पात्र में स्थविर के लिए ला सकता है। अपरिहारी परिहारी के पात्र में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य खा-पी नहीं सकता। वह अपने पतद्ग्रह ( तुम्बा आदि पात्र) या हाथ में ले-लेकर खा सकता है, पी सकता है। यह अपरिहारी का परिहारी की अपेक्षा से आचार है।
परिहारकल्पस्थित भिक्षु स्थविर का पात्र लेकर स्थविर के वैयावृत्त्य के लिए उपाश्रय से बाहर जाए, उस समय स्थविर कहें- आर्य! तुम अपने खाने-पीने के लिए भी भिक्षा ग्रहण कर लेना। ऐसा कहने पर वह अपने लिए भी आहार ग्रहण कर सकता है । पारिहारिक अपारिहारिक के पात्र में अशन, पान आदि खा-पी नहीं सकता। वह अपने पात्र या हाथ में ले-लेकर खा सकता है, पी सकता है, पारिहारिक की अपारिहारिक के प्रति यह सामाचारी है।
परिहारी भिक्षु का सामान्य आचार यह है कि वह पहले अपने पात्र में अपने योग्य भिक्षा लाकर फिर स्थविर के पात्र में स्थविर योग्य भिक्षा लाता है। अथवा पहले स्थविर योग्य लाकर फिर अपने योग्य लाता है। कारणवश एक ही पात्र में लाए तो स्थविर के खाने के पश्चात् स्वयं खाता है। कारण ये हो सकते हैं
• अशिव आदि के कारण अन्य साधुओं को अन्यत्र भेज दिया हो । स्थविर और परिहारी दो ही रह गए हों । स्थविर भिक्षाटन में असमर्थ हो । अथवा परिहारी तप के कारण खेदखिन्न हो । • द्रव्य दुर्लभ हों। सब घरों में भिक्षा का समय एक हो I
समय कम हो या पानी की अल्पता हो तो पारिहारिक और अपारिहारिक एक ही पात्र में एक साथ खा सकते हैं।
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