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आगम विषय कोश - २
एक बार भगवान् महावीर वहां समवसृत हुए। वे प्रवचन कर रहे थे। रोहिणेय चोरी कर उधर से गुजरा। कुछ लोग उसका पीछा कर रहे थे। भगवान् के वचन कानों में न पड़ जाएं, अन्यथा मेरा चौर्यकर्म छूट जाएगा - ऐसा सोच उसने कानों में अंगुलि डाली। पैर में कांटा चुभ गया। उसने कानों से अंगुलियां हटाकर कांटा निकाला। उस समय भगवान् देवता के बारे में चर्चा कर रहे थे- 'देवों के नयन अनिमिष होते हैं, उनके पैर भूमि से चार अंगुल ऊपर रहते हैं - ये शब्द उसके कानों में पड़ गए। वह फिर कानों में अंगुलियां डालकर दौड़ा।'
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एक दिन राजगृह में रात्रि में चोरी करते हुए वह पकड़ा गया किन्तु कोई पहचान नहीं सका कि यह रोहिणेय है या अन्य चोर है। राजपुरुष ने उसकी पिटाई की और पूछा- तुम रोहिणेय हो या नहीं ? यदि रोहिणेय हो, तो तुम्हें छोड़ देते हैं।
कूटनीति में सम्मत अठारह प्रकार की कारणा ( यातना ) से उसका परीक्षण किया जाने लगा। सतरह कारण पूर्ण हो जाने पर भी उसने नहीं बताया कि मैं रोहिणेय हूं। तब अठारहवीं सूक्ष्म कारणा- परिनिर्वापणा का प्रयोग किया गया। उसे मद्य पिलाया गया। वह अचेत हो गया, तब उसे देवलोक - भवन सदृश भवन में सुकोमल शय्या पर सुलाया गया। जब वह जागा, सचेत हुआ तो अप्सरातुल्य रमणियों ने पूछा- देव ! आप देवलोक में उत्पन्न हुए हैं। आप पूर्व भव में क्या थे? अपनी बात सहीसही कहेंगे तो यहां चिर काल तक रह सकेंगे अन्यथा तत्काल गिर जाएंगे- - यह यहां की रीति है। अतः आप सही स्थिति बताएं ताकि हम अनाथ न हों।
रोहिणेय तीर्थंकर के वचन याद कर सोचने लगा-भगवान् की वाणी यथार्थ होती है। उन्होंने देवों की जो पहचान बताई थी, वह यहां दिखाई नहीं दे रही है- 'इनके नेत्र अनिमिष नहीं हैं, पैर धरती को छू रहे हैं। ये मानवीय युवतियां हैं, अप्सराएं नहीं हैं। यह अभयकुमार की कूटनीति का चक्र है ।' उसने तत्काल उत्तर दिया- मैं रोहिणेय नहीं हूं। वह वहां से मुक्त हो गया ।
उसके चिंतन की धारा बदली - अहो ! अर्हत् महावीर मात्र एक वचन ने ही मुझे जीवन का सुख दे दिया, यदि मैं
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देव
सम्पूर्ण निर्ग्रथवचन सुनूं तो मेरा इहभव - परभव - दोनों सफल हो जाएं - यह सोचकर वह भगवान् के समवसरण में पहुंचा, प्रवचन सुना और प्रव्रजित हो गया। हिंसा पर अहिंसा की और भय पर अभय की विजय हुई। ३. लवसप्तम देव
........ आउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा जाता ॥ सत्तलवा जदि आउं, पहुप्पमाणं ततो तु सिज्झतो । तत्तियमेत्त न भूतं, तो ते लवसत्तमा जाता ॥ सव्वट्टसिद्धिनामे, उक्कोसठितीय विजयमादीसु । एगावसेसगब्भा, भवंति लवसत्तमा देवा ॥
(व्यभा २४३२ - २४३४ )
कुछ उत्कृष्ट साधु आयुष्य की क्षीणता/अल्पता के कारण सिद्धत्व से वंचित रह जाते हैं और वे लवसप्तम देव बनते हैं। उन्हें लवसप्तम इसलिए कहा जाता है कि यदि उनका आयु सात लव (३४३ श्वासोच्छ्वास/ लगभग ४ मिनिट २१ सैकिण्ड ) अधिक होता, तो वे उसी जन्म में केवली होकर सिद्ध हो जाते ।
जो देव सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में उत्पन्न होते हैं और जो विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित विमानों में उत्कृष्ट स्थिति वाले देव बनते हैं तथा जिनका एक जन्म शेष रहता है (एक भवावतारी/मनुष्य जन्म लेकर मुक्त होने वाले हैं), वे लवसप्तम देव कहलाते हैं।
(जैसे कोई निपुण तरुण पुरुष बिखरी हुई परिपक्व शालि आदि धान्य की नाल को इकट्ठा कर, मुट्ठी में पकड़कर सात मुट्ठी धान्य को तीक्ष्ण दात्र से अतिशीघ्र सात लव में काट लेता है, वैसे ही लवसत्तम देवों का यदि सात लव आयु शेष होता, तो वे उसी भव में मुक्त हो जाते। इसलिए उन्हें लवसत्तम कहा जाता है।
अनुत्तरोपपातिक देवों के शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श अनुत्तर होते हैं, इसलिए उन्हें अनुत्तरोपपातिक कहा जाता है। एक श्रमण-निर्ग्रथ बेले (दो दिन के उपवास) से जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्म जिनके अवशेष रहते हैं, वे अनुत्तरोपपतिक देव के रूप में उपपन्न होते हैं । - भ १४/८४-८८ )
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